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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [राग वेदना सहकर गजसुकुमारने सर्वज्ञ सर्वदर्शी होकर अनंतजीवन सुखको पाया । कैसी अनुपम क्षमा और कैसा उसका सुंदर परिणाम ! तत्त्वज्ञानियोंका कथन है कि आत्माओंको केवल अपने सद्भावमें आना चाहिये, और आत्मा अपने सद्भावमें आयी कि मोक्ष हथेलीमें ही है । गजसुकुमारकी प्रसिद्ध क्षमा कैसी शिक्षा देती है ! ४४ राग श्रमण भगवान् महावीरके मुख्य गणधर गौतमका नाम तुमने बहुत बार सुना है । गौतमस्वामीके उपदेश किये हुए बहुतसे शिष्योंके केवलज्ञान पानेपर भी स्वयं गौतमको केवलज्ञान न हुआ; क्योंकि भगवान् महावीरके अंगोपांग, वर्ण, रूप इत्यादिके ऊपर अब भी गौतमको मोह था । निग्रंथ प्रवचनका निष्पक्षपाती न्याय ऐसा है कि किसी भी वस्तुका राग दुःखदायक होता है । राग ही मोह है और मोह ही संसार है । गौतमके हृदयसे यह राग जबतक दूर न हुआ तबतक उन्हें केवलज्ञानकी प्राप्ति न हुई । श्रमण भगवान् ज्ञातपुत्रने जब अनुपमेय सिद्धि पाई उस समय गौतम नगरमेंसे आ रहे थे । भगवान्के निर्वाण समाचार सुनकर उन्हें खेद हुआ । विरहसे गौतमने ये अनुरागपूर्ण वचन कहे " हे महावीर ! आपने मुझे साथ तो न रक्खा, परन्तु मुझे याद तक भी न किया। मेरी प्रीतिके सामने आपने दृष्टि भी नहीं की, ऐसा आपको उचित न था।" ऐसे विकल्प होते होते गौतमका लक्ष फिरा और वे निराग-श्रेणी चढ़े । “ मैं बहुत मूर्खता कर रहा हूँ। ये वीतराग, निर्विकारी और रागहीन हैं, वे मुझपर मोह कैसे रख सकते हैं ! उनकी शत्रु और मित्रपर एक समान दृष्टि थी। मैं इन रागहीनका मिथ्या मोह रखता हूँ। मोह संसारका प्रबल कारण है।" ऐसे विचारते विचारते गौतम शोकको छोड़कर रागरहित हुए। तत्क्षण ही गौतमको अनंतज्ञान प्रकाशित हुआ और वे अंतमें निर्वाण पधारे। गौतम मुनिका राग हमें बहुत सूक्ष्म उपदेश देता है। भगवान्के ऊपरका मोह गौतम जैसे गणधरको भी दुःखदायक हुआ तो फिर संसारका और उसमें भी पामर आत्माओंका मोह कैसा अनंत दुःख देता होगा ! संसाररूपी गाड़ीके राग और द्वेष रूपी दो बैल हैं । यदि ये न हों, तो संसार अटक जाय । जहाँ राग नहीं वहाँ द्वेष भी नहीं, यह माना हुआ सिद्धांत है । राग तीव्र कर्मबंधका कारण है और इसके क्षयसे आत्म-सिद्धि है। ४५ सामान्य मनोरथ मोहिनीभावके विचारों के अधीन होकर नयनोंसे परनारीको न देखू; निर्मल तात्विक लोभको पैदाकर दूसरेके वैभवको पत्थरके समान समझू । बारह व्रत और दीनता धारण करके स्वरूपको विचारकर सात्विक बनें । यह मेरा सदा क्षेम करनेवाला और भवका हरनेवाला नियम नित्य अखंड रहे ॥१॥ ४५ सामान्य मनोरय सवैया मोहिनीभाव विचार अधीन थई, ना निरखं नयने परनारी; पत्यरतुल्य गणुं परवैभव, निर्मळ तात्विक लोभ समारी! द्वादशवृत्त अने दीनता परि, सात्विक याऊं स्वरूप विचारी; ए मुज नेम सदा शुभ क्षेमक, नित्य अखंड रहो भवारी ॥१॥
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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