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________________ ४४ श्रीमद् राजचन्द्र [भिखारीका खेद की । उसकी प्रार्थनापर करुणा करके उस गृहस्थकी स्त्रीने उसको घरमें जीमनेसे बचा हुआ मिष्टान्न ला कर दिया । भोजनके मिलनेसे भिखारी बहुत आनंदित होता हुआ नगरके बाहर आया, और एक वृक्षके नीचे बैठ गया। वहाँ ज़रा साफ़ करके उसने एक तरफ़ अत्यन्त पुराना अपना पानीका घड़ा रख दिया। एक तरफ अपनी फटी पुरानी मैली गूदड़ी रक्खी, और दूसरी तरफ वह स्वयं उस भोजनको लेकर बैठा । खुशी खुशीके साथ उसने उस भोजनको खाकर पूरा किया । तत्पश्चात् सिराने एक पत्थर रखकर वह सो गया । भोजनके मदसे ज़रा देरमें भिखारीकी आँखें मिंच गई । वह निद्राके वश हुआ । इतनेमें उसे एक स्वप्न आया । उसे ऐसा लगा कि उसने मानों महा राजऋद्धिको प्राप्त कर लिया है, सुन्दर वस्त्राभूषण धारण किये हैं, समस्त देशमें उसकी विजयका डंका बज गया है, समीपमें उसकी आज्ञा उठानेके लिये अनुचर लोग खड़े हुए हैं, आस-पासमें छड़ीदार क्षेम क्षेम पुकार रहे हैं । वह एक रमणीय महलमें सुन्दर पलंगपर लेटा हुआ है, देवांगना जैसी स्त्रियाँ उसके पैर दबा रही हैं, एक तरफसे पखेकी मंद मंद पवन दुल रही है । इस स्वप्नमें भिखारीकी आत्मा चढ़ गई । उस स्वप्नका भोग करते हुए वह रोमांचित हो गया । इतनेमें मेघ महाराज चढ़ आये, बिजली चमकने लगी, सूर्य बादलोंसे ढंक गया, सब जगह अंधकार फैल गया । ऐसा मालूम हुआ कि मूसलाधार वर्षा होगी, और इतनेमें बिजलीकी गर्जनासे एक ज़ोरका कड़ाका हुआ । कड़ाकेकी आवाजसे भयभीत होकर वह पामर भिखारी जाग उठा । ४२ भिखारीका खेद (२) तो देखता क्या है कि जिस जगहपर पानीका फटा हुआ घड़ा पड़ा था, उसी जगह वह पड़ा हुआ है; जहाँ फटी पुरानी गूदड़ी पड़ी थी वह वहीं पड़ी है। उसने जैसे मैले और फटे हुए कपड़े पहने थे, वैसेके वैसे ही वे वस्त्र उसके शरीरके ऊपर हैं । न तिलभर कुछ बढ़ा, और न जौंभर घटा; न वह देश, न वह नगरी; न वह महल, न वह पलंग; न वे चामर छत्र ढोरनेवाले और न वे छड़ीदार; न वे स्त्रियाँ और न वे वस्त्रालंकार; न वह पँखा और न वह पवन न वे अनुचर और न वह आज्ञा; न वह सुखविलास और न वह मदोन्मत्तता । बिचारा वह तो स्वयं जैसा था वैसाका वैसा ही दिखाई दिया । इस कारण इस दृश्यको देखकर उसे खेद हुआ । स्वप्नमें मैंने मिथ्या आडंबर देखा और उससे आनंद माना, परन्तु उसमें का तो यहाँ कुछ भी नहीं । मैंने स्वप्नके भोगोंको भोगा नहीं, किन्तु उसके परिणामरूप खेदको मैं भोग रहा हूँ। इस प्रकार वह पामर जीव पश्चात्तापमें पड़ गया। अहो भव्यो । भिखारीके स्वप्नकी तरह संसारका सुख आनित्य है । जैसे उस भिखारीने स्वप्नमें सुख-समूहको देखा और आनंद माना, इसी तरह पामर प्राणी संसार-स्वप्नके सुख-समूहमें आनंद मानते हैं । जैसे वह सुख जागनेपर मिथ्या मालूम हुआ, उसी प्रकार ज्ञान प्राप्त होनेपर संसारके सुख मिथ्या मालूम होते हैं । स्वप्नके भोगोंको न भोगनेपर भी जैसे भिखारीको खेदकी प्राप्ति हुई, वैसे ही मोहांध प्राणी संसारमें सुख मान बैठते हैं, और उसे भोगे हुएके समान गिनते हैं । परन्तु परिणाममें
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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