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________________ अनायी मुनि] मोक्षमाला वेदना क्षय हो गई, और मैं निरोग हो गया । माता, पिता, स्वजन, बांधव आदिको पूंछकर प्रभातमें मैंने महाक्षमावंत इन्द्रियोंका निग्रह करनेवाले, और आरम्भोपाधिसे रहित अनगारपनेको धारण किया । ७ अनाथी मुनि (३) हे श्रेणिक राजा ! तबसे मैं आत्मा-परात्माका नाथ हुआ । अब मैं सब प्रकारके जीवोंका नाथ हूँ। तुझे जो शंका हुई थी वह अब दूर हो गई होगी। इस प्रकार समस्त जगत्-चक्रवर्ती पर्यंतअशरण और अनाथ है । जहाँ उपाधि है वहाँ अनाथता है । इस लिये जो मैं कहता हूँ उस कथनका तू मनन करना । निश्चय मानो कि अपनी आत्मा ही दुःखकी भरी हुई वैतरणीका कर्ता है; अपना आत्मा ही क्रूर शाल्मलि वृक्षके दुःखका उपजाने वाला है; अपना आत्मा ही वांछित वस्तुरूपी दूधकी देनेवाला कामधेनु-सुखका उपजानेवाला है; अपना आत्मा ही नंदनवनके समान आनंदकारी है; अपना आत्मा ही कर्मका करनेवाला है; अपना आत्मा ही उस कर्मका टालनेवाला है; अपना आत्मा ही दुखोपार्जन और अपना आत्मा ही और सुखोपार्जन करनेवाला है; अपना आत्मा ही मित्र, और अपना आत्मा ही बैरी है; अपना आत्मा ही कनिष्ठ आचारमें स्थित, और अपना आत्मा ही निर्मल आचारमें स्थित रहता है। इस प्रकार श्रोणिकको उस अनाथी मुनिने आत्माके प्रकाश करनेवाले उपदेशको दिया। श्रेणिक राजाको बहुत संतोष हुआ । वह दोनों हाथोंको जोड़ कर इस प्रकार बोला-" हे भगवन् । आपने मुझे भली भाँति उपदेश किया, आपने यथार्थ अनाथपना कह बताया । महर्षि ! आप सनाथ, आप सबांधव और आप सधर्म हैं । आप सब अनाथोंके नाथ हैं। हे पवित्र संयति ! मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ। आपकी ज्ञानपूर्ण शिक्षासे मुझे लाभ हुआ है । हे महाभाग्यवन्त ! धर्मध्यानमें विघ्न करनेवाले भोगोंके भोगनेका मैंने आपको जो आमंत्रण दिया, इस अपने अपराधकी मस्तक नमाकर मैं क्षमा माँगता हूँ।" इस प्रकारसे स्तुति करके राजपुरुषकेसरी श्रेणिक विनयसे प्रदक्षिणा करके अपने स्थानको गया। महातपोधन, महामुनि, महाप्रज्ञावंत, महायशवंत, महानिग्रंथ और महाश्रुत अनाथी मुनिने मगध देशके श्रेणिक राजाको अपने बीते हुए चरित्रसे जो उपदेश दिया है, वह सचमुच अशरण भावना सिद्ध करता है । महामुनि अनाथीसे भोगी हुई वेदनाके समान अथवा इससे भी अत्यन्त विशेष वेदनाको अनंत आत्माओंको भोगते हुए हम देखते हैं, यह कैसा विचारणीय है ! संसारमें अशरणता और अनंत अनाथता छाई हुई है । उसका त्याग उत्तम तत्त्वज्ञान और परम शीलके सेवन करनेसे ही होता है । यही मुक्तिका कारण है । जैसे संसारमें रहता हुआ अनाथी अनाथ था उसी तरह प्रत्येक आत्मा तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिके विना सदैव अनाथ ही है । सनाथ होनेके लिये सद्देव, सद्धर्म और सद्गुरुको जानना और पहचानना आवश्यक है। ८सदेवतत्व तीन तत्त्वोंको हमें अवश्य जानना चाहिये । जब तक इन तत्त्वोंके संबंधों अज्ञानता रहती है तब तक आत्माका हित नहीं होता। ये तीन तत्व सद्देव, सद्धर्म, और सद्गुरु हैं । इस पाठमें हम सद्देवका स्वरूप संक्षेपमें कहेंगे।
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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