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________________ श्रीमद् राजचन्द्र [अनाथी मुनि दे सकती है ! जब तू स्वयं अनाथ है तो मेरा नाथ कैसे होगा !" मुनिके वचनसे राजा अति आकुल और अति विस्मित हुआ। जिस वचनका कभी भी श्रवण नहीं हुआ था, उस वचनके यतिके मुखसे श्रवण होनेसे वह शंकित हुआ और बोला-" मैं अनेक प्रकारके अश्वोंका भोगी हूँ अनेक प्रकारके मदोन्मत्त हाथियोंका स्वामी हूँ; अनेक प्रकारकी सेना मेरे आधीन है। नगर, ग्राम, अंतःपुर और चतुष्पादकी मेरे कोई न्यूनता नहीं है। मनुष्य संबंधी सब प्रकारके भोग मैंने प्राप्त किये हैं; अनुचर मेरी आज्ञाको भली भांति पालते हैं । इस प्रकार राजाके योग्य सब प्रकारकी संपत्ति मेरे घर है और अनेक मनवांछित वस्तुयें मेरे समीप रहती हैं। इस तरह महान् होनेपर भी मैं अनाथ क्यों हूँ ! कहीं हे भगवन् ! आप मृषा न बोलते हों।" मुनिने कहा, "राजन् । मेरे कहनेको तू न्यायपूर्वक नहीं समझा । अब मैं जैसे अनाथ हुआ, और जैसे मैंने संसारका त्याग किया वह तुझे कहता हूँ। उसे एकाग्र और सावधान चित्तसे सुन । सुननेके बाद तू अपनी शंकाके सत्यासत्यका निर्णय करनाः-- "कौशांबी नामकी अति प्राचीन और विविध प्रकारकी भव्यतासे भरपूर एक सुंदर नगरी है । वहाँ ऋद्धिसे परिपूर्ण धन संचय नामका मेरा पिता रहता था । हे महाराज | यौवनके प्रथम भागमें मेरी आँखे अति वेदनासे घिर गई और समस्त शरीरमें अग्नि जलने लगी । शस्त्रसे भी अतिशय तीक्ष्ण यह रोग वैरीकी तरह मेरे ऊपर कोपायमान हुआ । मेरा मस्तक इस आँखकी असह्य वेदनासे दुखने लगा । वज्रके प्रहार जैसी, दूसरोंको भी रौद् भय उपजानेवाली इस दारुण वेदनासे मैं अत्यंत शोकमें था । वैद्यक-शास्त्रमें निपुण बहुतसे वैद्यराज मेरी इस वेदनाको दूर करनेके लिये आये, और उन्होंने अनेक औषध-उपचार किये, परन्तु सब वृथा गये । ये महानिपुण गिने जानेवाले वैद्यराज मुझे उस रोगसे मुक्त न कर सके। हे राजन् ! यही मेरा अनाथपना था। मेरी आँखकी वेदनाको दूर करनेके लिये मेरे पिता सब धन देने लगे, परन्तु उससे भी मेरी वह वेदना दूर नहीं हुई। हे राजन् ! यही मेरा अनाथपना था । मेरी माता पुत्रके शोकसे अति दुःखात थी, परन्तु वह भी मुझे रोगसे न छुटा सकी। हे राजन् ! यही मेरा अनाथपना था । एक पेटसे जन्मे हुए मेरे ज्येष्ठ और कनिष्ठ भाईयोंने अपनेसे बनता परिश्रम किया परन्तु मेरी वह वेदना दूर न हुई । हे राजन् ! यही मेरा अनाथपना था। एक पेटसे जन्मी हुई मेरी ज्येष्ठा और कनिष्ठा भगिनियोंसे भी मेरा वह दुःख दूर नहीं हुआ । हे महाराज ! यही मेरा अनाथपना था। मेरी स्त्री जो पतिव्रता, मेरे ऊपर अनुरक्त और प्रेमवंती थी वह अपने आँसुओंसे मेरे हृदयको द्रवित करती थी, उसके अन्न पानी देनेपर भी और नानाप्रकारके उबटन, चुवा आदि सुगंधित पदार्थ, तथा अनेक प्रकारके फूल चंदन आदिके जाने अजाने विलेपन किये जानेपर भी, मैं उस विलेपनसे अपने रोगको शान्त नहीं कर सका । क्षणभर भी अलग न रहनेवाली स्त्री भी मेरे रोगको नहीं दूर कर सकी । हे महाराज ! यही मेरा अनाथपना था। इस तरह किसीके प्रेमसे, किसीकी औषधिसे, किसीके विलापसे और किसीके परिश्रमसे यह रोग शान्त न दुआ। इस समय पुनः पुनः मैं असह्य वेदना भोग रहा था। बादमें मुझे प्रपंची संसारसे खेद हुआ। एक बार यदि इस महा विडंबनामय वेदनासे मुक्त हो जाऊँ, तो खती, दैती और निरारंभी प्रव्रज्याका धारण करूँ, ऐसा विचार करके मैं सो गया । जब रात व्यतीत हुई, उस समय हे महाराज ! मेरी वह
SR No.010763
Book TitleShrimad Rajchandra Vachnamrut in Hindi
Original Sutra AuthorShrimad Rajchandra
Author
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1938
Total Pages974
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, N000, & N001
File Size86 MB
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