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________________ । साहित्य जन-समूह के हृदय का विकास है ] अपनी-अपनी खिचडी अलग पकाया करें । अब महाघोर काल उपस्थित है ।। चारों ओर भाग लगी हुई है । दरिद्रता के मारे देश जला जाता है । अँग. रेजों से जो नौकरी बच जाती है उस पर मुसल्मान आदि विधर्मी भरती होते जाते हैं । आमदनी वाणिज्य की थी ही नहीं, केवल नौकरी की थी. सो भी धीरे-धीरे खसकी । तो अब कैसे काम चलेगा । कदाचित् ब्राह्मण और गोसाई लोग कहें कि हमको तो मुफ़्त का मिलता है, हमको क्या ? इस पर हम कहते है कि विशेष उन्हीं को रोना है। जो करालसाल चला पाता है उसकी आँख खोलकर देखो। कुछ दिन पीछे श्राप लोगों के मानने वाले बहुत ही थोड़े रहेंगे । अब सब लोग एकत्र हो । हिन्दू नामधारी वेद से लेकर तन्त्र, बरंच भाषा ग्रन्थ मानने वाले तक सब क होर अब अपना परमधर्म यह रक्खो कि ग्रार्य जानि मे एका हो । इमी में धर्म की रक्षा है । भीतर तुम्हारे चाहे जोभाव और जैकी उपासना हो ऊपर से सर आर्यमात्र एक रहो । धर्मसम्बन्धी उपाधियों को छाडकर प्रकृतधर्म की उन्नति कगे। साहित्य जन-समूह के हृदय का विकास है - लेखक-५० बालकृष्ण भट्ट] ... प्रत्येक देश का साहित्य उसके मनुष्या के हृदय का अादर्शरूप है । जो जाति जिस समय जिस भाा से परिपूर्ण या परिप्लुत रहती है, वे सब उसके भाव उस समय के साहित्य की समालोचना से प्रकट हो सकते हैं । मनुष्य का मन जत्र शोक-सकुल, क्रोध मे उद्दीप्त या किसी प्रकार की चिन्ता से दोचित्ता रहता है, तब उसकी मुखच्छवि त ममाच्छन्न, उदासीन और मलिन रहती है। उस समय उसके कठ से जो ध्वनि निकलती है वह भी या तो फुटही ढोल के समान बेमुरी, वेताल वे लय या करुणापूर्ण, गद्गद तथा विकृतस्वरस युक्त होती है । वही जब चित्त आनन्द की लहरी से उद्वेलित हो नृत्य करता है और सुख की परंपरा मे मग्न रहता है, उस समय सुख विकसित
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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