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________________ ८२ [ हिन्दी-गद्य-निर्माण वासुदेवे भक्तिरस्य वासुदेवकः ||४|| ८|| और प्रद्युम्न, अनिरुद्ध और सुभद्रा नाम इत्यादि के पाणिनि के लिखने ही से.सिद्ध है कि उस समय के अतिपूर्व कृष्णावतार की कथा भारतवर्ष में फैल गई थी। यूनानियों के उदय के पूर्व पाणिनि का समय सभी मानते हैं। विद्वानों का मत है कि क्रम से पूजा के नियम भी वदले तथा पूर्व मे यज्ञाहुति, फिर वलि और अष्टांग पूजा आदि हुई और देव विषयक ज्ञान की वृद्धि के अन्त मे सब पूजन श्रादि से उसकी भक्ति श्रेष्ठ मानी गई। पुराणों के समय में तो विधि पूर्वक वैष्णव मत फैला हुआ था, यह सव पर विदित ही है। वैष्णव पुराणों की कौन कहे, शक्ति और शैव पुराणों में भी उन देवताओं की स्तुति उनको विष्णु से सम्पूर्ण भिन्न कर के नहीं कर सके हैं। अब जैसा वैष्णवमत माना जाता है उनके बहुत से नियम पुराणों के समय से और फिर तन्त्रों के समय से चले हैं। दो हजार वर्ष की पुरानी मूत्तियाँ बाराह, राम, लक्ष्मण और वासुदेव की मिली हैं और उन पर भी खुदा हुआ है कि उन मूर्तियों की स्थापना करनेवालों का वंश भागवत अर्थात् वैष्णव था । राजतरंगिणी के ही देखने से राम, केशव आदि मूर्तियों की पूजा यहाँ बहुत दिन से प्रचलित है, यह स्पष्ट हो जाता है। इससे इसकी नवीनता या प्राचीनता का झगड़ा न करके यहाँ थोड़ा-सा इस अदल-बदल का कारण निरूपण करते हैं। ' मनुष्य के स्वभाव ही में यह बात है कि जब वह किसी बात पर प्रवृत्त होता है तो क्रमशः उसकी उन्नति करता जाता है और उस विषय को जब तक वह एक अन्त तक नहीं पहुंचा लेता सन्तुष्ट नहीं होता । सूर्य के मानने की ओर जब मनुष्यों की प्रवृत्ति हुई तो इस विषय को भी वे लोग ऐसी ही सूक्ष्म दृष्टि से देखते गये। प्रथमतः कर्म मार्ग में फँसकर लोग अनेक देवी देवों को पूजते हैं, किन्तु बुद्धि का यह प्रकृत धर्म है कि यह ज्यों-ज्यों समुज्ज्वल होती है अपने विषय मात्र को उज्ज्वल करती जाती है। थोड़ी बुद्धि बढ़ने ही से यह विचार चित्त में उत्पन्न होता है कि इतने देवी देव इस अनन्त सृष्टि के नियामक नहीं
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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