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________________ ७० [हिन्दी-गद्य-निर्माण - विधि-पूर्वक हो चुका, अब ये अपने गुरु का कुछ संदेशा लाए है सो सुन लीजिये। तुष्यन्त-(श्रादर ले) सुनता हूँ कहने दो। दोनों ऋषि-(हाथ उठाकर) महाराज की जय रहे ! दुष्यन्त-तुम सबको मै प्रणाम करता हूँ। दोनों ऋषि-श्राप के मनोर्थ सिद्ध हो ! दुष्यन्त-मुनियों का तप तौ निरविघ्न होता है ? शारंगव दोहा-जब लग रखवारे बने, तुम जग मे महराज। .. क्यों विगरेंगे मुनिन के, धर्म परायण काज ॥१५॥ ज्योति दिवाकर की रहै, जौलो . मंडल छाय। ' अन्धकार नहिं ह सकै, प्रगट भूमि पै श्राय ॥१६॥ .. दुष्यन्त-तो अंव मेरा राजा शब्द यथार्थ हुा । कहो लोकहितकारी कण्व मुनि प्रसन्न हैं १, शारंगरव-महाराज कुशल तो तपस्वियों के सदा श्राधीन ही रहती है । गुरु जी ने श्रापका अनामय पूछ कर यह कहा है। . दुभ्यन्त क्या आशा की है ? शारंगरव-कि तुमने मेरी इस कन्या को गान्धर्व रीति से व्याह लिया, 'सो न्याह मैंने 'प्रसन्नता से अंगीकार किया, क्योंकि. दोहा--तुम्हें मुख्य सज्जनन में, हम जानत हैं भूप । शकुन्तला हू है निरी, सतकिरिया को रूप ॥१८७|| सैसे समगुण बरवधू विधि ने दुहू मिलाय।। वहुत दिनन पाछे लियो, अपने दोष मिटाय ॥१८॥ अव इस गर्भवती को धर्माचरण निमित्त लीजिये। गौतमी-हे राना, मैं भी कुछ कहा चाहती हूँ, पर कहने का अवकाश अभी नहीं मिलासोरठा-पूले याने नहिं गुरुजन तुकहु न बन्धुजन :
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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