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________________ २२८ [हिन्दी-गव-निर्माण असकहि पुनि चितये तेहि ओरा। सिय-मुख ससि भये नयन चकोरा ॥ + + + इसके बाद श्री रामचन्द्र जी मन ही मन सीता जी के सौन्दर्य की भावना करते हैं, और मन ही मन आश्चर्य मे खूब कर लक्ष्मण जी से कहते हैं कि क्या कारण है, मेरा मन आज इस सौन्दर्य को देखकर चशल हो रहा है जासु विलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मन छोमा ।। सो सब कारने जानु विधाता। फरकहिं सुभग अङ्ग सुनु भ्राता ॥ इस प्रकरण के पहिले ही गोस्वामी जी ने "प्रीति पुरातन लखै न कोई" कह कर यह इशारा कर दिया है कि सौन्दर्य को देखकर जहाँ ऐसा पवित्र प्रम का आकर्षण होता है, वहाँ अवश्य पूर्व जन्म का कोई प्रम भाव होना चाहिए। अस्तु । इस प्रकार सौन्दर्य सामयं श्रानन्द का कारण है सही, परन्तु सौन्दर्य का बोध कराने के लिए श्रानन्द का भाव भी उतना ही अपेक्षित है! क्योंकि जब तक आनन्द का भाव नहीं होगा सौन्दर्य की कल्पना भी मनश्चचुओं के सम्मुख नहीं आयेगी । वीणा की मृदुमधुर झहार, कणेन्द्रिय के द्वारा इत्गत होकर, जब श्रानन्द-भावना जागृत करेगी, तभी उसके सोदय का बोध हमको होगा। इससे जान पड़ता है कि सौन्दर्य और आनन्द दोनों सापेच भावनाएँ है। सचमुच ही सति के प्रारम्भ में अपरूपी अानन्द से बब सब भूतों की उत्पति हुई होगी, तब मनुष्य को अपने आस-पास की सहोदर । सुष्टि को देख देख कर अवश्य कौतूहल हुआ होगा; और आज भी हमको प्रकृति के चराचर दृश्यों को देखकर वैसा ही कौतूहल होता है । इस कोवास की भावना से की हम प्रत्येक वस्तु में सौंदर्य की कल्पना करते हैं। यह सौंदर्य की कल्पना दो प्रकार की है-एक वाट सौर्य और
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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