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________________ १८८ [हिन्दी-गद्य-निर्माण सुमित्रा ने कहा-'तुमने व्यर्थ ही यह निमन्त्रण स्वीकार किया। लिख देते, मेरी तबीअत अच्छी नहीं है । इन फटे-हालों जाना तो और भी बुरा है ।। प्रवीण ने दार्शनिक गम्भीरता से कहा, 'जिन्हें ईश्वर ने हृदय और . परख दी है, वे आदमियों की पोशाक नहीं देखते-उसके गुण और चरित्र - देखते हैं । आखिर कुछ बात तो है कि राजा साहव ने मुझे निमंत्रित किया। मैं कोई अोहदेदार नहीं, जमादार नहीं, जागीरदार नहीं, ठेकेदार नहीं केवल एक साधारण लेखक हूँ। लेखक का मूल्य उसकी रचनाये होती है । इस एतवार से मुझे किसी भी लेखक से लज्जित होने का कारण नहीं है ।' .. सुमित्रा उनकी सरलता पर दया करके वोली-'तुम कल्पनाओं के संसार में रहते-रहते प्रत्यक्ष ससार से अलग हो गये हो। मैं कहती हूँ कि राजा साहब के यहाँ लोगों की निगाह सबसे ज्यादा कपड़ों ही पर पड़ेगी। सरलता जरूर अच्छी चीज है; पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि आदमी फूहड़ बन जाय ।' प्रवीण को इस कथन में कुछ सार जान पड़ा। विद्वानों की भांति उन्हें भी अपनी भलों को स्वीकार करने में कुछ विलम्ब न होता था । बोले-'मैं' समझता हूँ, दीपक जल जाने के बाद जाऊँ ।' 'मैं तो कहती हूँ, जाओ ही क्यों ?? 'अब तुम्हें कैसे समझाऊँ, प्रत्येक प्राणी के मन मे अादर ओर सम्मान की एक क्षुधा होती है। तुम पूछोगी यह दुधा क्यों होती है। इसलिये, कि यह हमारे अात्म-विकास की एक मंजिल है। हम उस महासत्ता के सूक्ष्माश है जो समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त है । अंश मे पूर्ण (अशो) के गुणों का होना लाजिमी है। इसलिये कीर्ति और सम्मान; आत्मोमति और शान की ओर हमारी स्वाभाविक रूचि है। मैं इस लालसा की बुरा नहीं । समझता।' सुमित्रा ने गला छुड़ाने के लिए कहा-'अच्छा भई जाओ. मैं तुमस नहस नहीं करती, लेकिन कल के लिये कोई व्यवस्था करते आना; क्योंकि मेर
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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