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________________ १७० । [हिन्दीमांच-निर्माण यह प्रवृत्ति स्वाभाविक ही है । फिर साहित्य-संगीत के समवेत रूप में उसका . प्रचार भी सुलभ है। कवि केवल स्वान्तःसुखाय कविता नहीं करता, उसका मुख्य उद्देश्य यशोलिप्सा होती है । वह चाहता है कि उसके काव्य का . प्रचार हो, जिससे उसके यश का प्रसार हो । इसी कारण काव्य के प्रयोजनों मे पहला स्थान यशः प्राप्ति को दिया गया है काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये ।। सद्यः परिनिवृतये कान्तासम्मिततोपदेशयुजे ॥ । अर्थप्राप्ति, व्यवहारज्ञान, अंशुभनिवृत्ति, परमानन्दलाभ और मनोहारी , उपदेश-यह सब प्रयोजन यश के पीछे गिनाये हैं। गद्य गाया नहीं जा सकता, इसलिए वह याद भी नहीं हो सकता, और फिर प्रचार भी नहीं पा सकता । पद्य की प्रधानता का यही कारण है कि वह गाया जा सकता है, अतः सुगमता से याद भी किया जा सकता है। इस प्रकार सर्वसाधारण में प्रचारित होकर वह कवि के यश का प्रसारक बन जाता है । इसके अतिरिक्त एक और भी कारण है, और वह इससे भी अधिक पद्य की प्रवृत्ति का उचेजक है। पद्य में कवि की असमर्थता को छिपाने का साधन छिपा रहता है, उसमें बँधी गत बजाने से काम चल जाता है। एक असमथ पद का, किसी अनुचित शब्द का, प्रयोग पद्य में इसलिए क्षन्तव्य समझ लिया जाता है कि छन्द मे वही फिट बैठता है, उसका दूसरा पाय रखने से छन्द विगड़ता है । (निःसन्देह कालिदास श्रादि सिद्ध कवियों के काव्य इसके अपवाद हैं, फिर भी अधिकाश पद्य-रचना के सम्बन्ध में यह सत्य है।) संगीत की मनोहरता कविता के गुण-दोष पर सहसा ध्यान नहीं जाने देती, पदसन्निवेश के औचित्यानौचित्य पर दृष्टि नहीं पड़ने देती, श्रोता के कान और ध्यान लय स्वर के साथ पढ़े जानेवाली कविता के गान में तल्लीन होकर रह जाते हैं । आजकल की हिन्दी कविता इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है । भदौ से भद्दी और रद्दी से रद्दी कविता कवि-सम्मेलनों में गाई जाती है और श्रोताओं से साधुवाद का पुरस्कार पा जाती है। कवि महाशय उसी बात को यदि गद्य में कहने लगें, तो कोई सुननो भी पसन्द न करे, साधुवाद और दाद
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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