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________________ १६८. [हिन्दी-गव-निर्माद से कहा जा सकता है कि उपनिषदों के सदृश मनोहर गद्य किसी भी प्राचीन भाषा के साहित्य में नहीं है । फिर जिस भाषा का साहित्य इतना समुद्र और सर्वाङ्ग सम्पूर्ण हो, उसके विषय में यह कहना कि यह व्यवहार की भाषा नहीं है या नहीं थी, 'वदतों व्याघात है। यदि कोई भाषा व्यवहार के उपयुक' नहीं है, तो वह 'भाषा' ही नहीं है, उसे भाषा कहना ऐसा ही है, वैसा । 'अनुष्ण अमि' या 'गन्धहीन पृथ्वी' । अपने श्राशय को वाणी के व्यवहार .. द्वारा दूसरों तक पहुँचने के साधन का नाम ही तो भाषा है; अन्य भाषाओं के समान संस्कृत में भी यह गुण पूरी मात्रा में मौजूद है। जब कभी यहाँ संस्कृत का साम्राज्य था, उस समय को जाने दीजिये। आज इस युग में भी मलावार का विद्वान् काशी के पडित से संस्कृत के द्वारा सुगमता से व्यवहार करता है । पेशावर का रहनेवाला सस्कृतश बंगाली संस्कृतश से इसी भाषा के सहारे अपना काम चला लेता है । क्या इसका नाम व्यवहार नहीं है । संस्कृत भाषा 'मृतभाषा' नहीं, यह 'अमरभाषा' है । जिसके बोलने और समझनेवाले पढ़ने और पढ़ानेवाले आज भी लाखों हैं, उसे 'मृतभाषा' कहना ऐसा ही है, जैसे भारतवासियों को स्वराज्य के अयोग्य बताना या सिन्धु को सूखा सरोवर कहना ! जो लोग 'देवभाषा' (संस्कृत) को मृतभाषा कहते हैं, उन्हें स्वर्गीय कवि श्री महेशचन्द्र ने इन पद्यों में समुचित, पर मुँहतोड़ उत्तर दिया है ये तु केचिदिमां दिव्यां भारतीममृतामपि । मृतां वदन्तो निन्दन्ति दूरात् परिहरन्ति च । मूढास्ते पण्डितम्मन्या बालास्ते वृद्धमानिनः । अन्धास्ते दृष्टिमन्तोऽपि प्राप्ता गनिमीलिकाम् । पश्यन्तोऽपि न पश्यन्ति ते हि ब्राह्मी मितस्ततः । अद्यापि ब्राह्मणमुखे नृत्यन्तीं रुचिरैः पदैः। . यावदास्ते त्रयीलोके चतुमुख-मुखोद्गता । यावद्या रामचरितं वाल्मीकिकविचित्रितम् । क्षरन्न्यमृतधारा वा यावद् व्यासस्य सूक्तयः । बाग्देव्यावरपुत्रस्य कालिदासस्य वा गिरः।
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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