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________________ . १०६ .. [हिन्दी-गद्य-निर्माण हृदयेश्वर, मंगलेश्वर भारतेश्वर इत्यादि, पर मुख्य नाम प्रेमेश्वर है। कोई महाशय प्रेम को ईश्वर न समझे । मुख्य अर्थ है कि प्रेममय ईश्वर । इनका दर्शन भी प्रम-चक्षु के विना दुर्लभ है। जब अपनी अकर्मण्यता का और उनके एक उपकार का सच्चा ध्यान जमेगा तव अवश्य हृदय उमड़ेगा और नेत्रों से अश्र धारा वह चलेगी। उस धारा का नाम प्रमगंगा है।'. उसी के जल से स्नान करने का माहात्म्य है । हृदय-कमल उनके चरणों पर चढाने से अक्षय पुण्य है । यह तो इस मूर्ति की पूजा है जो प्रम के बिना नहीं हो सकती । पर वह भी स्मरण रखिये कि यदि आपके हृदय मे प्रम है नो संसार भर के मूर्तिमान और अमूर्तिमान् पदार्थ शिवमूर्ति अर्थात् कल्याण * के रूप के हैं । नहीं तो सोने और हीरे की मूर्ति तुच्छ हैं । यदि उससे नी का गहना वनवाते तो शोभा होती, तुम्हें सुख होता, भैयाचारे का नाम होता, विपत्ति काज मे निर्वाह होता । पर मूर्ति से कोई बात सिद्ध नहीं हो सकती । पाषाण, धातु मृत्तिका का कहना ही क्या है ? स्वय तुच्छ पदार्थ है, केवल प्रेम ही के नाते ईश्वर है, नहीं तो घर की चक्की से भी गये बीते पानी पीने के भी काम के नहीं, यही नहीं प्रेम के विना ध्यान ही में क्या ईश्वर दिखाई देगा ? जब चाहो अॉखें मूद कर अन्धे की नकल कर देखो । अन्धकार के सिवाय कुछ न सूझेगा । वेद पढ़ने में हाथ मुंह दोनों दुखेंगे । अधिक, श्रम करोगे, दिमाग में गर्मी चढ़ जायगी। खैर इन बातों के वढ़ाने से क्या है ? जहाँ तक सुहृदयता से विचार कीजिये वहाँ तक यही सिद्ध होगा कि प्रेम के विना वेद झगड़े की जड़, धर्म वे सिर पैर के काम, स्वर्ग शेखचिल्ली का महल, भक्ति प्रम की वहन हैं। ईश्वर का तो पता ही लगना कठिन है । ब्रह्म शब्द ही नपु सक है और हृदय मदिर में प्रेम का. प्रकाश है तो संसार शिवमय है क्योंकि प्रम ही वास्तविक शिवमूर्ति अर्थात् कल्याण का रूप है।
SR No.010761
Book TitleHindi Gadya Nirman
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLakshmidhar Vajpai
PublisherHindi Sahitya Sammelan Prayag
Publication Year2000
Total Pages237
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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