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________________ ९० प्रायश्चित्त-समुच्चय । अर्थ-जो वज्रषभनाराच संहनन, वज्रनाराच संहनन और नाराचसंहनन इन आदिके तीन संहननोंमेंसे किसी एक संहननवाला है, सर्वगुणसंपन्न है केवल निद्राविजयो नहीं है उस साधुको सब प्रायश्चित्त देने चाहिए। तथा पारंचिक प्रायश्चित्तके प्राप्त होने पर उसको अनुपस्थान प्रायश्चित्त देना चाहिए पाचिक नहो। वह अनुपस्थान प्रायश्चित्त अपने गणम ही करता है प्रायश्चित्त करलेने पर उसे फिर चिरंतन तपमें स्थापन करना चाहिए ॥ १५० ।। नवपूर्वधरो श्राद्धो वैराग्यधृतिमानजित्। . परिणामसमयोऽपि योऽनुपस्थानभागसौ १५१॥ अर्थ-जो यतिपति नवपूर्वका ज्ञाता है, श्रद्धावान् है, संसार शरीर और भोगोंमें रागभाव रहित है, संतोपो है, अकृतकृत्य है अर्थात् सर्वशास्त्रका ज्ञाता है किन्तु व्याख्याता नहीं है और विशुद्ध परिणामवाला है वह अनुपस्थान प्रायश्चित्तका भागी है । आप्रश्नालोचने तस्य सदैव गुरुसंनिधौ। . बंदनादिप्रकुर्वाणः प्रतिबंदनवर्जितः॥१५० ॥ अर्थ-उस अनुपस्थान प्रायश्चित्तवालेके, आचार्यके निकट आपृच्छा-अपने कार्यके लिए पूछना और आलोचना ये दो होते हैं। वह अन्य ऋषियोंको वंदना आदि करता है पर वे 'अन्य ऋषि उसे प्रतिवंदना नहीं करते ॥.१५०॥. . . . .
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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