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________________ ७६ प्रायश्चित-समुनयः। उत्कृष्टं मध्यमं नीचमदत्तं स्वीकरोति यः। उपधि लघुमासोऽस्य पंचकं पुरुमंडलं ॥१२४॥ ___ अर्थ-जो यति विना दिये हुए पुस्तक आदि उत्कृष्ट उपकरण, पिच्छि आदि मध्यम उपकरण और कमंडलु आदि जघन्य उपकरण ग्रहण करता है उसके लिए क्रमसे लघुमास, कल्याणक और पुरुमंडल प्रायश्चित्त है। भावार्थ - उत्कृष्टका लधुमास) मध्यपका कल्याणक और जघन्यका पुरुमंडल प्रायश्चित्त है ॥ . संज्ञाविहारभिक्षासु पुरुमडंलमीडित। कोशादिग्रामगतावप्यनापृच्छयगुरुंगते॥१२५॥ अर्थ-प्राचार्यको पुछे बिना संज्ञा-पलत्याग करने, दूसरी बसतीको जाने, भिताके लिए जाने, तथा एक कोश, दो कोश, तीन कोश आदि दूरवर्ती अन्य ग्रामको जानेका मायश्चित्त पुरुमंडल कहा गया है ॥ १२५॥ साधारणाशनासेवे स्थापनावश्मवेशने । ज्ञात्वा संज्ञिकुलादीनि पूर्ववेशिनि पंचकं ॥१२६।। अर्थ-अपरिमित आहार ग्रहण करनेका, चार या पांच आदमी जिसमें निवास करते हों ऐसे मकानमें प्रवेश करनेका और श्रावकोंके घर आदि समझ कर पहले प्रवेश करनेका पंचक-कल्याणक प्रायश्चित्त है। १२६ ॥ अन्यदत्तोपधेः स्थानमन्यो गत्वा तमाददत् । ‘लभते मूलं रूपव्यत्ययकारिणः ।।१२७॥
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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