SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४ प्रायश्चिम-समुच्चय । का एक ब.ल्याणक और बड़े पत्थर फेंकनेका पंचकल्याणक प्रायश्चित्त हैं ॥४॥ प्रधावयति धावेद्वा वषाद्वन्हेरभित्रसन्। स्वनिंदा वाथ कल्याणं मासोलाघवदार्शनि॥१५॥ . अर्थ-जो वर्षासे अथवा अग्निसे डर कर औरोंको भगाता है अथवा स्वयं भगता है वह यदि व्याधियुक्त है तो आत्मनिंदा प्रायश्चित्तको और व्याधिरहित है तो कल्याणक मायश्चित्तको माप्त होता है। तथा शीघ्रता दिखानेवालेके लिए पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है॥५॥ पिपीलिकादिभीमांसाधारणे स्यात्प्रतिक्रमः। चिरं क्रीडयतो देयं कल्याणं मलशोधनं ॥१६॥ अर्थ-चींटी, ज, खटमल, डांस, सर्प, मनुष्य प्रादिकी मंत्र तंत्र आदि शक्ति द्वारा चाल रोक देनेका प्रायश्चित्त प्रतिक्रमण है। तथा बहुत काल तक क्रीडा करते हुएको कल्याणक प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥६॥ विद्यामीमांसने योगप्रयोगे प्रासुकैः कृते । शुद्धयेदवद्यसंयुक्तैर्ल घुमासं समश्नुते ॥ ९७ ॥ अर्थ-रोहिणो, प्रज्ञप्ति, वज्रशङ्खल आदि विद्याएं सिद्ध हुई या नहीं इस विषयकी परीक्षा करनेके लिए गंध, अक्षत, धूप आदि प्रासुक पूजा द्रव्यों द्वारा औपधिप्रयोग करनेका
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy