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________________ प्रतिसेवाधिकार । बहुलेपेऽप्ययत्नेन पंचकं वा न दोषयुक् । अयत्नेनोभयं (मे) वापि स्वस्थानेन विशुद्ध्यति ॥ __अर्थ-प्रसावधानीसे बहुतसा लोपनेका प्रायश्चित्त एक कल्याणक है और सावधानीसे वहुतसा लीपनेका कोई प्रायश्चित्त नहीं है। तथा पुराकर्म और पश्चात्कर्ममें प्रयत्नपूर्वक लीपने पर पंचकल्याणकसे शुद्ध होता है अर्थात इसका पंचकल्याणक प्रायश्चित्त है ॥८॥ ददत्याः संप्रमान्ने प्रत्येकानन्तको त्रसं। पुरुमंडलमाचाम्लमेकस्थानं निषेवते ॥८९॥ अर्थ-प्रत्येककाय, अनन्तकाय और त्रसकायका मर्दन कर परिवेषिका-आहार देनेवालीस आहार ग्रहया करे तो क्रमसे पुरुमडल, आचाम्ल और एकस्थान प्रायश्चित्त है। भावार्थप्रत्येक वनस्पतिके मर्दनका पुरुमंडल, साधारण वनस्पतिके मर्दनका आचाम्ल और द्वौद्धियादि त्रस जीवोंके मर्दनका एकस्थान प्रायश्चित्त है ॥८॥ भीत्वोन्मार्ग प्रपद्येत तरुमारोहति क्षिपेत् । काष्ठादिकं विलद्वारपिधाने पंचकं न वा॥ ९०॥ अर्थ-डर कर उन्मार्ग-ऊजड़ मार्ग होकर चलने लग जाय, वृत्तपर चढ़ जाय या लकड़ो पत्थर ईट आदि फेंकने लग जाय तो उसका कल्याणक प्रायश्चित्त है। तथा विल मूंदनेका
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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