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• संज्ञाधिकार: अर्थ-हेय और आदेय भावोंका तथा प्रतीचारोंकी शुद्धि का जिसमें वर्णन पाया जाता है उस श्रुत-समुद्रकों नमस्कार करता हूँ। • भावार्थ-भाव शब्दका अर्थ पदार्थ और परिणाम दोनों हैं। प्रत्येकके दो दो भेद हैं। हेय और आदेय । यहां पर व्रतोंके अतीचार इय भाव हैं ओर मूतना, टट्टी करना आदि अवश्य करने योग्य आदेय भाव हैं। तथा कवाटोद्घाटन आदि अंती पर हैं इन सबका वर्णन श्रुत समुद्रमें पाया जाता है। उसी श्रुत समुद्रकी यहां स्तुति की गई है ॥२॥ __ आगे ग्रन्थका नाम निर्देश करते हैं:-. पारंपर्यक्रमायातं रत्नत्रयविशोधनं । . संक्षेपात् संप्रवक्ष्यामि प्रायश्चित्तसमुच्चयं ॥३॥ - अर्थ-जो परंपरा के क्रमसे चला आरहा हैं, जिसमें रलत्रयकी विशुद्धि पाई जाती है उस प्रायश्चित्त-समुच्चय नामके ग्रन्थको संक्षेपसे कहता हूं.. : . .. .. .. प्रायश्चित्तं तपः प्राज्यं येन पापं पुरातनं। ..... क्षिप्रं संक्षीयते तस्मात्तत्र यत्नो विधीयतां ॥४॥
अर्थ-यह प्रायश्चित्त बड़ा भारी तपश्चरण है जिससे पहले किये हुए पाप शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। इसलिए प्रायश्चित्तके करनमें अवश्य यत्न करना चाहिए ॥४॥