SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रतिसेनाधिकार। आगाढकारणाद्वन्हिर्निवात्यानीयमानकः। पंच स्यु रसाहाराः कल्याणं वा प्रमादिनि॥४२॥ ___ अर्थ-ऋपियोंको यदि उपसर्ग हो या रोग आदि हो इस हेतुसे लाई हुई अग्नि बुझा दे तो उसका प्रायश्चित्त पांच नीरस आहार (निर्विकृतियां) अथवा प्रमादवान पुरुषके लिए एक . कल्याणक प्रायश्चित्त है ॥ ४२ ॥ ग्लानाथ तापयन् द्रव्यं वन्हिज्वाला यदि स्पृशेत् । पंच स्यू रूक्षभक्तानि कल्याणंच मुहुर्मुहुः॥४३॥ अर्थ-बीमार पुरुषके निमित्त उसका शरीर या और कोई उपकरण तपाते हुए यदि एक वार अग्निको ज्वाला (लो)-का स्पर्शन करे तो उसकी शुद्धि पंच निर्विकृति आहार है और यदि बार वार सर्शन कर तो उसका प्रायश्चित्त एककल्याणक है। विभावसोः समारंभ वैद्यादेशाद्यदि स्वयं । अनापृच्छयातुरं कुर्यात् पंचकल्याणमश्नुते॥४४॥ अर्थ-यदि बीमारको न पूछकर केवल वैद्यके कहनेसे स्वयं अपने आप अग्नि जलानेका आरम्भ करे तो वह पंचकल्याणकको प्राप्त होता है। भावार्थ-इस तरहके आरम्भका प्रायश्चित्त पंचकल्याण है॥४४॥ . . . . .
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy