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________________ प्रायश्चित्त-समुच्चय ! प्रायश्चित्त एकस्थान है। छेदनका अर्थ जानसे मार देनेका नहीं है किन्तु उन चीजों के एक देशके खंडन करनेका है। जानसे मार देनेका मायश्चित्त जुदा है। यह प्रायश्चित्त उनके एक देश खंडनमें है ॥३३॥ प्रत्येकेऽनन्तकाये वा त्रसे वाथ प्रमादतः। आचाम्लं चैकसंस्थानं क्षमणं च यथाक्रम ॥३४॥ ___ अर्थ-जो छिन्न-भिन्न करने पर न उगे और जिसके एक शरीरका स्वामो एक ही जीव हो ऐसे सुपारी नारियल आदि प्रत्येक कायिक हैं। इन प्रत्येकज्ञायिक वस्तुओंको प्रमाद-पूर्वक छिन्न भिन्न करनेका प्रायश्चित्त आचाम्ल-कांजिकाहार है । प्रत्येककायिकसे विपरीत अनन्तकायिक होते हैं जिनका स्वरूप ऊपरके श्लोकमें बता चुके हैं उन अनन्तकायिक वस्तुओं को प्रमाद-पूर्वक छिन्न-भिन्न करनेका प्रायश्चित्त एकसंस्थान है। तथा प्रमादसे दो इन्द्रिय आदि त्रस जीवोंके छेदन-भेदनका. मायश्चिच उपवास है ॥३४॥ व्यापन्ने सन्निधौ देया निष्प्रमादप्रमादिनोः। पंच स्युनरिसाहाराश्चैक कल्याणकं बसे ॥३५॥ आभीक्ष्ण्ये पंचकल्याणं पंचाक्षे चापि दर्पतः। प्रमादेनैककल्याणं सकृदप्युपयोगतः ॥३६॥ . .अर्थ-कमंडलु भेषज आदि भाजनोंको सन्निधि कहते हैं
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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