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________________ प्रायश्चित्त-समुच्चय । ११२२ १३ आगाढकारणकृत सकृत् असानुवोची १४ अनागाढकारणकृत, " २१२२. १५ आगाढकारणकृत असकृत् । १२२२ १६ अनागाढकारणकृत , " २२२२. आगे नष्ट विधि कहते हैंसगमाणेहि विहत्ते सेसं लक्खित्तु संखिवं रूवं । लक्खिजते सुद्धे एवं सव्वत्थ कायव्वं ।। अर्थ-पृष्ट दोपको संख्या रखकर अपने अपने प्रमाणकाः भाग देवे । भागदेने पर जो संख्या वच रहे उसको अक्षस्थान. समझे। लब्यमें एक जोड कर फिर स्वप्रमाणका भाग दे जो. चाकी वच रहे उसको अक्षस्थान समझे । अगर वाको कुछ भी न बचे तो लब्ध संख्यामें एक न जोडे और अन्तका अन्न ग्रहणः 'करे। इस तरह सब जगह करें। भावार्थ-किसोने सोलह उचारणाओंमेंसे कोई सी उच्चारणा पूछी उस उच्चारणामें दोषोंका कोनसा भेद है यह मालूम न हो तो इस गाथा द्वारा मालूम. करलिया जाता है। जैसे किसोने पूछा कि नौवीं उच्चारणाम कौनसा अक्ष है तब ६ संख्या स्थापनकर उसमें आगाहः और अनागाहका भाग दिया चार लंब्ध हुए और एक बाकी वचा । 'शेषं अक्षपदं जानीहि' इसके अनुसार प्रागाढ समझना चाहिये, क्योंकि आगाह और अनागाढमें पहला आगाह है। फिर जो चार लब्ध पाये हैं उसमें.
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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