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________________ २१६ प्रायश्चित्त-चूलिका । यावंतः स्युः परीणामास्तावंतिच्छेदनान्यपि । प्रायश्चितं समर्थः को दातुं कर्तुमहोमते॥१६३१ अर्थ-जितने परिणाम में उतने ही प्रायश्चित्त हैं। इसमकार उतना प्रायश्चित्त न तो कोई देनको समर्थ है और न काई करने. का समर्थ हैं ॥१३॥ प्रायश्चित्तमिदं सम्यग्युजानाः पुरुषाः परं। लभंते निर्मलां कीर्तिं सौख्यं स्वर्गापवर्गजं ॥ .. ___ अर्थ-इस प्रायश्चित्तको अच्छी तरह करनेवाले पुरुष अग्रगण्य होते हैं, निर्मल कीर्तिको प्राप्त करते हैं और स्वर्ग और मोत्तसंबन्धी सुख भोगते ह ॥१६॥ चूलिकासहितो लेशात् प्रायश्चित्तसमुच्चयः। नानाचायमतानकैयाद्वोद्भुकायेन वर्णितः॥ अर्थ-यह चलिका सहित प्रायश्चित्त-समुच्चय नामका ग्रंथ अनेक आचार्यों के अनेक मतोंको एक रूपसे जाननेकी इच्छासे मैंने संक्षेपसे कहा है ॥ १६॥ अज्ञानाद्यन्मया बद्धमागमस्य विरोधिकृत् । तत्सर्वमागमाभिज्ञा शोधयंतु विमत्सराः॥१६६। अर्थ-अज्ञानवश जो मैंने परमागम, शन्दागम और:: गपसे विरुद्ध कहा हो उस सबको आगमके वेत्ता आचार्य म. दव मत्सरभावोंसे रहित होते हुए शुद्ध करें। इस तरह गुरुदास आचार्यकृत प्रायश्चित्त-समुच्चय और उसकी चूलिकाका नवीन हिन्दी-अनुवांद पूर्ण हुआ।
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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