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________________ प्रायश्चित्त अर्थ-सम्यग्दृष्टि पुरुष हमेशह धर्मके उदाह-विनाशसे डरते रहते हैं इसलिए वे लोभ, मोह, द्वेष आदिके वश होकर कभी भी धर्ममें कलंक लगनेको वांछा नहीं करते हैं ।। १५७ ॥ प्रायश्चित्तं न यत्रोक्तं भावकालक्रियादिकं। . . . गुरुद्दिष्टं विजानीयात् तत्प्रनालिकपानया ॥ . अर्थ-भाव-परिणाम, काल-शीतकाल, उष्णकाल और साधारणकाल, क्रिया-सचिल्त, अचित्त और मिश्रद्रव्यका. प्रतिसेवन इत्यादि प्रायश्चित्त जो यहां नहीं कहा गया है उसको गुरु उपदेशके अनुसार इसी पद्धतिसे समझ लेना चाहिए ॥१५८ उपयोगावतारोपात् पश्चात्तापात् प्रकाशनात् । पादांशार्धतया सर्वं पापं नश्यद्विरागतः ॥१५९॥ अर्थ-किसी अपराधके वन जानेपर उपयोग (सावधानो) रखनेसे, कोई न कोई व्रत लेलेनेसे, पश्चात्ताप करनेसें तथा. अपना दोष दूसरेको कहनेसे वह अपराव चौथे हिस्से प्रमाणं और आधा नष्ट हो जाता है। और विरक्त परिणामोंसे नों सबका सब नष्ट हो जाता है। भावार्य किया हुआ अपराधं उक्त कारणोंसे चतुर्थ हिस्से प्रमाण, आधा अथवा सवका सब नष्ट हो जाता है ॥ १५६॥ अवद्ययोगविरतिपरिणामो विनिश्चयात् ।... प्रायश्चित्तं समुद्दिष्टमेतत्तु व्यवहारतः ॥ १६० ।। अर्थ-निश्चयनयकी अपेक्षासे. संपूर्ण सावधयोगः-पाप
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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