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________________ चूलिका। अर्थ-रजस्वलाके समय आर्यिका समता, स्तव, वन्दना, भतिक्रमण, प्रसाख्यान और कायोत्सग इन छह आवश्यक क्रियानोको मौनपूर्वक करे और शुद्ध हो जानेके पश्चात गुरुके समीप जाकर व्रत ग्रहण करे ॥१३५॥ स्नानं हि त्रिविधं प्रोक्तं तोयतो व्रतमंत्रतः । तोयेन स्याद् गृहस्थानां साधूनां व्रतमंत्रतः॥ अर्थ-स्नान तीन प्रकारका कहा गया है-जलस्नान, व्रतस्नान और मन्त्रस्नान । जलस्नान गृहस्थ करते हैं तथा व्रतस्नान और मंत्रस्नान साधु करते हैं। व्रतस्नान और मंत्रस्नान यह साधुओंकी परमार्थ शुद्धि है । परन्तु चांडाल आदिका स्पर्श हो जाने पर व्रतपालते हुए उनको जलसे भी व्यवहार शुद्धि करना चाहिए ॥ १६ ॥ __ इस प्रकार आर्याभोंका प्रायश्चित्त कहकर श्रावकोंका प्रायः । श्चित्त कहते हैंश्रमणच्छेदनं यच्च श्रावकाणां तदेव हि। द्वयोरपि त्रयाणां च षण्णामाहानितः॥१३७॥ ___ अर्थ-जो मायश्चित्त साधुओंके लिए कह आये हैं वही क्रमसे दो, तीन और छह श्रावकोंके लिए आधा आधा है। भावार्थ-श्रावक ग्यारह तरहके होते हैं। उनमेंसे उद्दिष्ट सागी । और अनुतिसागी इन दो उत्कृष्ट श्रावकोंके लिये मुनिमायश्चित्तसे आधा प्रायश्चित्त है। परिग्रहत्यागी, आरंभयागी और ब्रह्मचारी इन तीन मध्यम श्रावकोंके लिए उत्कृष्ट श्रावकके
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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