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________________ १९४ प्रायश्चित्त-: अन्यके प्रति प्रकट करता है उसे मासिक-पंचकल्याण प्रायभित्त देना चाहिए ॥ १०३ ॥ खकं गच्छं विनिर्मुच्य परं गच्छमुपाददत् । अर्धनासौ समाछेद्यः प्रव्रज्याया विशंसयं ॥१०॥ __ अर्थ-जो साधु जिस गच्छमें कि उसने दीक्षा ली है वह यदि अपने उस गच्छको छोड़ कर दूसरे गछमें चला जाय तो उसकी निःसंदेह आधी दीक्षा छेद देनी चाहिए ॥ १०४॥ यः परेषां समादत्ते शिष्यं सम्यक्प्रतिष्ठितं । मासिकं तस्य दातव्यं मार्गमूढस्य दंडनं ॥१०॥ अर्थ-जो प्राचार्य, अच्छी तरहसे रत्नत्रयमें व्यवस्थित . किये गये अन्य आचार्यके शिष्यको स्वीकार करता है उस मार्गमूढ़ (ब्यवस्था न जानने वाले) रशिष्यग्राहीको मासिक पंचकल्याण प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥१०॥ ब्राह्मणः क्षत्रियाः वैश्या योग्याः सर्वज्ञदीक्षणे । कुलहीने न दीक्षाऽस्ति जिनेन्द्रोद्दिष्टशासने ॥ अर्थ-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तोन ही सर्वज्ञ दीक्षा अर्थात् निम्रन्थ लिंगको धारण करनेके योग्य हैं। इन तीनोंसे भिन्न शुद्ध आदि कुलहीन हैं अतः उनके लिए जिनशासनमें निर्गन्ध (नम) लिंग नहीं है-वे निम्रन्थ लिंगको पारण. करनेके योग्य नहीं हैं। तदुक्तं ..
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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