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________________ ORA चलिका। __ अर्थ-मुख धोते हुए साधुके मुखमें यदि जलकी चूद चली नाय तो उसको पालोचना, कायोत्सर्ग, और प्रतिक्रमण सहित उपवास प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥८॥ आगंतुकाच वास्तव्या भिक्षाशय्यौषधादिभिः । अन्योन्यागमनाद्यैश्व प्रवर्तते खशक्तितः ॥१०॥ अर्थ-मागंतुक परगणसं आये हुए मुनि, और वास्तव्यअपने गणमें रहनेवाल मुनि, दोनों परस्परमें चर्या, शयन, ओपध, प्राछा, मालोचना, व्याख्यान, वात्सल्य, संभाषण इयादि द्वारा तथा परस्पर एक दूसरेको देखकर जाना-आना, विनय करना, खड़े होना इत्यादि द्वारा अपनी अपनी शक्तिके अनुसार प्रति करें ॥१०॥ विधिमेवमतिक्रम्य प्रमादाद्यः प्रवर्तते । तस्मात् क्षेत्रादसौ वर्षमपनेयः प्रदुष्टधीः ॥ ९१ ॥ अर्थ-जो मुनि प्रमादके वशीभूत होकर उक्त विधानका उन्नड़न कर अपनी प्रवृत्ति करे उस दुष्टबुद्धि मुनिको उस क्षेत्रसे वर्ष भरकं लिए निकाल देना चाहिए ॥१॥ शिलोदरादिके सूत्रमधीते प्रविलिख्य यः। चतुर्थालोचने तस्य प्रत्येकं दंडनं मतं ॥ ९२॥ अर्थ-पत्यरकी शिला, उदर, आदि शब्दसे भूमि, भुजा, जंघा भादिक ऊपर शास्त्र लिखकर जो कोई मुनि अभ्यास करे तो
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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