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________________ प्रायशि-समुचय। २२,११११,२२२२, और चौथी पंक्तिमें आठ लघु और पाठ गुरु एवं अष्टान्तरित स्थापित करे ११११, ११११, २२२२, २२२२ । इसी क्रमको लानेके लिए नीचे एक करण गाथा दी जाती हैपढमं दोसपमाणं कमेण णिक्खिविय उपरिमाणं च। पिंडं पडि एकेक्कं निक्खित्ते होइ पत्थारो ॥ ___ अर्थ-प्रथम दोषके प्रमाणको विरलन कर क्रमसे रख कर और उन विरलन किये हुये एक एकके ऊपर, ऊपरका एक एक पिंड रखकर जोड़ देनेपर प्रस्तार होता है। सो हो कहते हैंआगादकारण और भनागाइकारणका प्रमाण दो इनको विरलन कर क्रमसे लिखे १ १, इनके ऊपर दूसरा सकृत्कारी और असत्कारी दोषके पिंड दोदो को रक्खे , इन दो दो को जोड़ने से चार हुए । फिर इन चारोंको कपसे चार जगह विरलन कर रक्खे ११११ इनके ऊपर सानुवीची और असानवीचीका एक एक पिंड रख कर FIFF जोड़ देनेसे आठ हुए पुनः इन आों को आठ जगह विरलन कर रक्खे ११११११११ इनके ऊपर प्रयत्नमतिसेवी और अप्रयत्नपतिसेवीका एक एक पिंड स्थापित कर जोड़ देनेसे सोलह हुए । इस तरह प्रस्ताररूप स्थापन किये सोलह भंगोंके कहनेका विधान कहते हैं-आगाढकारणकृत सकृत्कारी सानुवीची प्रयत्नवान ११११ यह इन सोलह दोषोंकी प्रथमो.
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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