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________________ छेदाधिकार। प्रायश्चित्त होत है छेद करके भी फिर छेद करे, फिर छेद करे, फिर केट करे, सो निरन्तर केदते छेदते तब तक केट करे जब तक कि मूल प्रायश्चित्त प्राप्त न हो। भावार्थ-कौन कौनसे दोषोंके लगने पर कितने कितने दिनकी दीक्षा छेद देना चाहिए यह ऊपर वर्णन कर आये हैं। यह दोक्षा दोषोंके अनुसार एक दिनको आदि लेकर एक दिन, दो दिन, तीन दिन, चारदिन, पांच दिन, दश दिन, पत, मास. चतुर्मास, छहमास, वर्ष, दीक्षाका आधा भाग, पोना भागको इस तरह छेदते छेदते तब तक छेदो जाय जब तक कि मूल प्रायश्चित्त प्राप्त नहीं होता ॥२३२॥ . छेदभूमिमतिक्रान्तः परिहारमनापिवान् । प्रायश्चित्तं तदा मूलं संप्रपद्येत भावतः ॥२३३॥ अर्थ-जो छेद प्रायश्चित्तको योग्यताको तो उल्लंघन कर चुका हो और परिहार प्रायश्चिच दिये जाने की योग्यताको न पहुंचा हो उस समय वह परमार्थसे मूल-पुनः दीक्षा देना रूप प्रायश्चित्तको प्राप्त होता है। भावार्थ-ऐसा अपराध जो छेद प्रायश्चित्तसे शुद्ध न हो सकता हो और परिहार प्रायश्चित्तके योग्य न हो ऐसो दशामें मूल प्रायश्चित्त देना चाहिए ॥२३३ ॥ श्रामण्यैकगुणा यस्मादोषानश्यन्ति कात्य॑तः । भ्रष्टव्रतस्य तत्तस्य मूलं स्याद् व्रतरोपणं ॥२३४॥ ' अर्थ-जिस दोषके सेवनसे महाव्रत बिलकुल नष्ट हो गये हों
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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