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________________ संज्ञाधिकार । एक एक उपवासका फल होता है । 'अरहंत. सिद्ध, आयरिय, उवमाया साहु' यह सोलह अक्षरोंका 'अरहंत सि सा' यह छह अक्षरोंका और अरहत' यह चार अक्षरोंका मन्त्र है ॥१४॥ अकारं परमं वीजं जपेयः शतपंचकं । प्रोषधं प्राप्नुयात् सम्यक् शुद्धबुद्धिरतंद्रितः ॥१५॥ अर्थ-जो निर्मलबुद्धिवारी पुरुष प्रालसरहित होता हुआ परमोत्कृष्ट अकार वीजाक्षरको पांच सौ वार अच्छी तरह. जपता है यह एक उपवासका फल पाता है। तदुक्तंपणतीसं सोलसयं छच्च उपयं च वण्णवीयाई। एउत्तरमट्ठसयं साहिए पं (पं)च खमणटुं । अर्थ-एक सौ आठ वार जपा हुआ पैंतीस अक्षरोंका जाप, दोसौ बार जपा हुआ सोलह अक्षरोंका जाप, तीन सौ बार जपा हुआ छह अक्षरों का जाप, चार सो वार जपा हा चार वीजा-- सरोंका जाप और पांच सौ बार जपा हुआ पद-एक प्रकार या ओंकार वीजाक्षरका जाप एक उपवासके लिए हेता. इति संझाधिकारः प्रथमः ॥१॥
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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