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________________ ११२ प्रायश्चित्त-समुच्चय। (४) आलस्य या प्रमादक्श अपने सब दोपोंको न जानते हुए सिर्फ स्थूल दोष कहना, अथवा स्थूल दोष कहना और सूक्ष्म दोप छिपा लेना चौथा वाद नामका पालोचना दोष है। (५) महादुश्वर प्रायश्चित्तके भयसे स्थूल दोपको छिपाकर मूक्ष्म दोष कहना सूक्ष्म नामका पांचवां आलोचना दोष है। (६) व्रतोंमें इस प्रकारका प्रतीचर लग जाय तो उसका प्रायश्चित्त क्या होना चाहिए इस दंगसे गुरुसे पूछकर उसके बताये हुए प्रायश्चित्तको करना छटा छन्न नामका आलोचना दोष है। (७) पाक्षिक, चातुर्मासिक और सांवत्सरिक अतीचारोंकी शुद्धिके समय जव भारी मुनिसमुदाय एकत्रित हो और उस समय उनके द्वारा निवेदित आलोचनाओंके कथनका प्रचुर कोलाहल हो रहा हो तब अपने पूर्वदोष कहना सातवां शब्दाकुल नामका आलोचना दोष है। (८) गुरुने जो प्रायश्चित्त बताया है वह आगमानुकूल है या नहीं इस तरह सशंकित होकर अन्य साधुओंसे पूछना अथवा अपने गुरुने पहले किसीको प्रायश्चित्त दिया हो पश्चात उन्होंने उस प्रायश्चित्तको किया हो उसीको अपन भी कर लेना बहुजन नामका अठवां आलोचना दोष है। (६) कुछ भो प्रयोजन रखकर, अपनेसे ज्ञान अथवा संयम नीच साधुको "वडेसे बडा भी लिया हुआ पाश्चित्त विशेष ‘फल देनेवाला नहीं होता" इस प्रकार अपने दोष निवेदन कर
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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