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________________ - संज्ञाधिकार। अर्थात्-एक व्युत्सर्गमें नौ पंचनमस्कार होते हैं। चारह व्युत्सर्गोंमें एक सौ आठ पंच नमस्कार होते हैं। इन एक सौ आठ पंच नमस्कारोंके जपनेका फल एक उपवास है। तथा कायोत्सर्गके और भी अनेक भेद हैं। तदुक्तंयदेवसियं अटै सयं पक्खियं च तिण्णि सया। चाउम्मासे चउरो सयाणि संवत्सरे य पंचसया ॥ भावार्थ-एक सौ आठ पंचनमस्कारोंका देवसिक कायोत्सर्ग होता है या देवसिक कायोत्सर्गमें एक सौ आठ पंच नपस्कार होते हैं। तथा पातिकमें तीन सौ, चातुर्मासिकमें चार सौ और सांवत्सरिकमें पांच सौ पंच नमस्कार होते हैं ॥११॥ आचाम्लेन सपादोनस्तत्पादः पुरुमंडलात् । एकस्थानात्तदर्धं स्यादेवं निर्विकृतेरपि ॥१२॥ ___ अर्थ-आचाम्ल अर्थात् कंजित भोजन करनेसे वह उपवास चतुर्थाश हीन हो जाता है अर्थात् चार हिस्सोंमेंसे एक हिस्सा प्रमाण कम होजाता है-तीन हिस्सामात्र ही अवशिष्ट रह जाता है। अनगारकी भोजन वेलाको पुरुमंडल कहते हैं। इस पुरुमंडलसे वह उपवास चतुर्थाश-चौथे हिस्से बराबर रह जाता है। तथा तीन मुहूर्त तकके भोजनके कालमें एक ही स्थानमें पैरोंका संचार न कर भोजन करना एकस्थान है। इस एकस्थानके करनेसे वह उपवास प्राधा ही रह जाता है। और
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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