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________________ पुरुषाधिकार । १०३ सर्वांगजातरोमांचो वैयावृत्यं तपो महत् । लाभद्वयं सुमन्वानः श्रेष्ठित्वे पुत्रलाभवत्॥१६४॥ __ अर्थ-तथा जिसके सारे शरीरमें रोमांच उत्पन्न हो गये हैं, और जो वैयात्य और गुरु तप दोनों की प्रासिको धनवानके पुत्र लाभकी तरह अच्छा मानता है वह उभयतर है।. भावार्थ-धनवानके धन लाभ तो है हो, पुत्र उत्पत्ति हो जानेस उसे विशेष हपं होता है उसी तरह जो वैयासत्य और तप दोनोंकी प्राप्तिसे महा हर्पित होता है वह उभयत र है ॥१६४॥ वैयावृत्यं समाधत्स्व तपो वेति गणीरितः। तत एकतरं धत्ते खेच्छयान्यतरः स्मृतः ॥१५॥ ___ अर्थ-बैंयाटस करो अथवा तप करो इस प्रकार प्राचार्यने कहा। अनन्तर जो पुरुष एकको तो धारण करता है और दूसरेको अपनी इच्छानुसार धारण करता है वह अन्यतर माना गया है ॥ १६५॥ वैयावृत्यं न यो वोढुं प्रायश्चित्तमपि क्षमः। दुर्वलो धृतिदेहाभ्यामलब्धिनोंभयः सतु॥१६६॥ अर्थ-जो पुरुष वैयारस और उपवासादि प्रायश्चित्त धारण करनेमें समर्थ नहीं है और धैर्यवंल तथा देहवल से दुर्बल है और लाभवर्जित है वह अनुभय है। भावार्थ- जो यारस और
SR No.010760
Book TitlePrayaschitta Samucchaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPannalal Soni
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publication Year
Total Pages219
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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