SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ ६४ ] माया सहि उतिम मधिम, प्रभु सरीखी पांति । आ अजरी लागे अधिक, भगतवछल नां भ्रांति ॥१३२॥ खरतर लू कां तप रिखां, माहो माहि दुमेल । जैन धरम कीधी जयो, गेम कपट रै गेल ॥१३॥ ॥ कवित्त ।। गेम कपट र गैल, धरम थमीयौ धरणीधर । अई बुद्ध अवतार, आव आलम ले अमर । इळा हुई अप्रवीत, दुजा धेनां वधियो दुख । घरम सत धूजीयो, सरस पापियां ही सुख । वधियो व्याज, सच साक्रीयो खुरासारण हुतां खडी। तेत्रीस कोड चाडी तुरै, चचळ सेत ऊपर चडी ॥१३॥ चडि वेगी चक्र धरि, कर काई ढील करता। गळी वढं गाय रौ, वळे ब्राह्मण विरत्ता। अनत जणांरी आण धरणी कर खवर धरम री। वेद व्यास री आरण, प्राण वारट ईसर री। मेघ रिप अन मार्म घड़ी, घरणी वाट जोर्व घरगी। तूं हम जेज राख त्रिगुण, तन प्राण भगता तरणी ॥१३॥ भगतां कजि भूधरी, कटक करिस करणाकरि। तीन भुवन तेइस्यै, नाग देवता अन नर । वळण करी वाराह, वाह राज री वडाई। अणवर ब्रह्मा ईस, साथ पाडव सगाई । मेघ रिष सीस करस मया परमेसर गुर परणसै । विसंभर वास वैकुठरी, वळि राजा नां वगससे ॥१३६।। वळिराजा नै बगसि कोड़ि इद्रासरण काइम । करिसौ फौजा कई, देव कद चडसी दाइम । सतरि हजारहु सैन साम कदि लेसौ साथै । खड़ग त्रिधारी खरी, हमै कद ग्रहिसो हाथ ।
SR No.010757
Book TitlePirdan Lalas Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year
Total Pages247
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy