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________________ [ ५२ ] आतमि देत उपाइया, पौरिसि बळ अरणपार। मेध कीटग जीप कमरण, मध कीटग मैवार ॥ ६६॥ ॥ कवित्त ॥ मघ कीटग दे मार हार देवता हुई हरि । त्राहि त्राहि सुर तवै, किसन वैहिलो ऊपर करि । वहमि जगायो विसिन, परम कोपियो ईसर परि। महा कोप मन माहि, कध केकारण जिसो करि । बह सामि अने दारणव बिन्हइ,घरण जोर जूटा घरणी। हेकला विढं के जुग हुआ, जळ मथीयो जळनिधि तणौ ॥७०॥ जळ माहै जगदीस विढे मघ कीट विभाडे । वतलावें वेसा सि, पछै दाणवा पछार्ड' । मध कीटग रौ मास करै धरती करणा कर। देवां नै तिरण दीह, वडो सुख दिये विसभर । सहि जाव ग्यान सनकादिखा जण२ सरिसौ जू जूनी। सुर जेठ भीड पडती समो, हस रूप ठाकुर हुऔ ।। ७१ ।। हुऔ देत हरणाख, ब्रह्म नै सोच हुनौ वळि । समद सात साकीया, रैण ले गयो रसातळि । इद्र वरण औद्रके, बहत देवी घटियौ बळ । हुऔ राम वाराह, जमी कारण मथियौ जळ । आधारि दाढ़ ऊपरि इळा, धरणी धरि तारी धरा । हरणाख मारि जीती हरी, प्रघळ जोर परमेसरा ॥७२।। हैके परमेसर कछ हुो, अवतार नमी हरिः। इंद निवाजण अरक, अमर तेडिया अपपरि । वाम तणे वासत, राम मथीयौ रेणायर । दईतां रा तिरण दिवस, वहत मन मोहै बायर। विलौने वार बळिराव वहि सुरां जैत सीता वरै। रुघनाथ तिकै दिन राह रो, धडसां सिर अळगी धर॥७३॥
SR No.010757
Book TitlePirdan Lalas Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year
Total Pages247
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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