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________________ PRASHTHE G4 . লিখলঞ্জুহি জুনি-লিস্ট एक साहित्यिक अध्ययन (प्रो० नरेन्द्र भानावत . गवन मेन्ट कॉलेज, बून्दी) १७ वी शती के उत्तरार्द्ध के कवियो मे जिनराजसूरि का महत्वपूर्ण स्थान है । ये खरतरगच्छीय प्राचार्य जिनसिंहमूरि के शिष्य थे। प्रारंभ से ही इन्होने दर्शन, साहित्य और व्याकरण का अध्ययन किया। काव्य की ओर रुचि थी ही। अध्ययन और अभ्यास का सहारा पाकर इनकी प्रतिभा खिल उठी । सेकड़ों पद, स्तवन और रास मुक्त हंसी हंसने लगे। जन-साधारण को उनमे मिला हृदय को उल्लसित करने वाला प्राध्यात्मिक वातावरण, मस्तिष्क को सजग बनाने वाला प्रोत्म-रस पोर जीवन को मधुर बनाने वाला उद्बोधन । ऐसे आमधर्मी कविकी रचनाओ का समग्र रूपसे एक ही स्थान पर पास्वादन हो सके ऐसे प्रयत्न की महत्ती आवश्यकता थी। 'समयसुन्दर कृति कुसुमांजलि' के ही अनुक्रम मे 'जिनराजसूरि कृति कुसुमार्जाल' के प्रकाशन द्वारा यह महदनुष्ठान अव पूर्ण हुआ है । यहा संक्षेप मे आलोच्य कृति का साहित्यिक अध्ययन प्रस्तुत किया जा रहा है। (क) भाव पक्ष.-- भाव कविता का मूलधर्म है । इसके अभाव मे कविता कविता नहीं रहती । ये भाव कमो सासारिक विषयो से लिपटे रहते तो कभी प्राध्यात्म जगत से बचे रहते हैं। हिन्दी का रीतिकालीन काव्य पहली धारा का प्रतिनिधित्व करता हैं तो भक्तिकालीन काव्य दूसरी घाग का । पालोच्य-कवि दोनो घारापो के बीच में रहा है। पर उसका स्वाद अपना है, उसकी पद्धति अपनी है। (य)
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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