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________________ संवतोल्लेख वाली दूसरी रचना कम बत्तीसी स० १६६६ में रची गई रचना-समय का निर्देश न होने पर भी आपके दीक्षा नाम राजसमुद्र के नाम-निर्देश वालो अनेको रचनाए प्रस्तुत ग्रथ मे हैं इससे आप आचार्य पद से पूर्व भी कवि के रूप मे काफी प्रसिद्ध पा चुके थे, सिद्ध है । राजस्थानी और हिंदी की फुटकर कवितायो के अतिरिक्त आपने स स्कृत में भी उस समय कई टीकादि ग्रथ बनाए थे । कवि श्री सार ने आपके रचित 'ठाणांग' नामक तृतीय अगसूत्र की वृत्ति रचने का उल्लेख किया है। पर वह आज प्राप्त नहीं है। उल्लेख इस प्रकार है"श्री ठाणांग नइ वृत्ति करीनइ, विसमउ अर्थ बतायो।" ___ संभव है यह वृत्ति प्राचार्य पद से पहले ही की हो। सं. १६८१ मे श्रीसार उसका उल्लेख करते है । उससे पहले तो यह प्रसिद्ध हो चुकी थी। पंचमांग भगवती सूत्र के 8 वें शतक के ३२ । उद्देशक का आपने स स्कृत मे विवरण लिखा था जिसकी । पत्रो की एक हस्तलिखित प्रति हमारे संग्रह मे है । पर यह प्रति लिखते हुए छोड दी गई है इसलिए अपर्ण रह गई है। यह विवरण आपने वाचनाचार्य पद प्राप्ति के बाद और प्राचार्य-पद प्राप्तिसे पूर्व लिखा है । उक्त विवरण का प्रारंभिक अंश नीचे दिया जाता है । "श्री पार्श्वनाथ प्रणम्य नवमशतकस्य द्वात्रिंशत्तमोद्देशकस्य टीकानुसारेण वाचनाचार्य श्री राजसमुद्र गरिणभिःक्रियते विवरण" इससे आपने और भी कई भागमादि ग्र यो के विवरण लिखे थे, मालूम होता हैं, पर उनका प्रचार अधिक नही हो पाया। बीकानेर के खरतर गच्छीय वृहद्ज्ञानभंडार के अंतर्गत महिमाभक्ति भंडार में तर्क शास्त्र संवधी किती ग्रंथका विवरण राजसमुद्रजी का लिखित प्राप्त है जिसका मध्यम अंश सं०१६६३ फागण वदि १२ को लिखा हुआ है। इससे उस समय तक आपका न्यायशास्त्र का अच्छा अभ्यास हो चुका था और संभव
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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