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________________ जिन सिंह सूरि द्वादशमास २२१ तेजइ सूरिज ज्यु सदा गुरु०, गिरवर जेम सुधीर ।।एहगा२॥ कोकिल कलरव अभिनवउ गुरु०, सब जननइ सुखकार |एह०॥ निरमल मोति तणी पक्ति गुरु०, दंत पक्ति अतिसार एह०॥३॥ केलि थुभ ज्युनासिका गुरु०, भापरिण पत्र सभार ॥एह० ॥ नयरण कमल विकस्या जिसा गुरु०,खरतर गच्छ शृंगार |एहnि सोभागी महिमानिलउ गुरु०, चाँपसी शाह मल्हार ॥एह०॥ . राजसमुद्र मुनि इम कहइ गुरु०,गच्छपतिम इ सिरदार ।।एह०॥५॥ श्री जिनसिंहसूरि पाणी महिमा गीतम् गुरु वाणी जग सगलउ मोहीयउ, साचा मोहणवेलो जी। साँभलतां सहुनइ सुख स पजइ,जारिग अमीरस रेलो जी ॥१शागुरु०॥ बावन चंदन तई अति सीतली, निरमल गग तर गो जी। पाप पखालइम विमल जल तणा, लागो मुझ मन रंगो जी ॥२॥गुरु०॥ वचन चातुरी गुरु प्रतिबूझत्री, साहि सलेम नरिंदो जी। प्रमयदान नउ पड़हो वजावियउ, श्रीजिनसिंहसूरिंदो जी ||शागुरु०॥ चोपडा वंशइ सोमे चढावतउ, चापसी शाह मल्हारो जी। परवादी गज भजण केसरी, आगम अर्थ भंडारो जी ॥४॥गुरु०॥ युगप्रधान सइ हाथई थापिया, अकबरशाहि हजूरो जी। 'राजसमुद्र' मन र गइ उचरइ, प्रतपउ जो ससि सूरो जी ॥शागुरु. चन चातुरी गुरु हो वजावियतनसिंहमूरिद श्री जिनसिंहसूरि द्वादशमास ॥हा॥ पुरसादारणी पास जिण, निमल प्रापउ . नारण । गुरु जिसिंहसूरि गाइसु , भविक कमल वन भाण ॥१॥ जग जारणीता जुगपवर, सिरि जिणच दसूरिद ।
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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