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________________ २१२ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि पंच वरण फलाँ तणउ, वरषरण करि सुभ भाव। बिमल वस्त्र ऊ चउ करइ, दिसि दिसि वधतइ दाव ॥२॥ सुर सुभ वाजे वाजते, गावइ मधुरा गीत । सुणतां तिल डोलइ नही, चंचल पिरण ए चीत ।।३।। सर्व गाथा ४६४] ढाल-२७ ख भाइती राग, मोरी मातजी अनुमति द्यो-एहनी कृष्ण नरेसर प्रहसमइ र, बाहिर साला आइ र। अम्यगन मज्जन करी रे भूषण अग वरणावई र ॥१०॥ मन माहे उतकठा वादरण तणी रे नेमीसर हो सुरतरू मम त्रिभुवन धरणी हो आँकरणी। कोरट माल सहित भलउ र, माथइ छत्र विराजइ रे। धवल चामर बिहु गमइ र, पेखि गगजल लाजइ रे ॥२म०॥ टोले टोले नर घणा र, लाखे गाने केडड र। भाव भगति धरि अति धणी रे, एक-एक नइ तेडड रे ॥३॥म०॥ द्वारवती नगरी तराइ र, विचि मइ चलतउ आवइर। प्रभु वदी देसण सुगुरे, एह भावना भावइ रे ॥४॥म०॥ जरा करी जीरण धणु रे, देह किलामण पामइ र । ईटि रास हुतो ग्रही रे, एक एक निज धामइ रे ॥शाम ॥ ई टि सचारइ डोकरउ र, परसेवइ परघल नउ र। हरि सेना देखी करी. एफरिण पासइ टलतउ रे ।।६।।म०॥ देखी हरि निज चित्तमह रे, दीनदयाल विचारइर। खिन्न खेद ए नर हूड रे, वार वार इणि भारइ रे ॥७॥म०॥ एक ई टि प्रापण ग्रही रे, तसु मदिर पहुचाइ रे। तिमहीज लोक सहू करइ रे, सेवक पति अनुयाई रे म०॥ ई टवाह हरि साँनिधड रे, मुदित हुअउ इम बोलइ रे । पर उपगारी तू जयउ रे, तुझ गुण कोइ न तोलइ रे ||म०॥
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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