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जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजाल
तिण* ऊपरि वेसास,xकरू जामिरिण किसउ ॥१२॥ कंचरण कोडि म छोडि, पुत्र गज-गामिनी,
परणावि सु दस वीस, सकोमल कामिनी। स यमनउ ए काल, न वालक वय अछइ,
सुख भोगवि स जम्म, बेवइ लेस्याँ पछइ ॥१३॥ जाण्यउ अनरथ मूल, अरथ तिण परिहरू,
चलती हुइ जो साथ, आथि तउ आथरू+। अनिवड़ थाता वार, न लागइ. जे सगा,
नोडइ जूनी प्रीति, पलक मइ ए पगा॥१४॥ महिला दुरगति खारिण, तिके किम आदरइ,
भव सागर तरिवा, नो जे मनसा घरइ। काम भोग मधु विदु, जिसा मन माहरइ,
विद्याधर जिनराज, मिलइ तउ साहरइ ॥१५॥ पोतानइ मन माहि, मनोरथ उपजइ,
कीजइ ते जाण्यउ, हुवइ काल सरूप जइ। जे पडख्या ते हाथ, बिन्हे घसता गया,
___ माखी नी परि पछतावइ, सोथा थया ॥१६॥ ए संसार असोर, रयण सुपनउ तिसउ,
लाघउ घरम प्रमूलिक, चिंतामणि जिसउ। जाणु छु दूखरण, न लाविस काहरी, धावी धार वत्रीस, छइ जउ ताहरी ॥१७॥ ॥ दूहा ॥
[सर्व गाथा ३२४] वयण सुरणी इम मात नां, उत्तर प्राण्या जेह । तउ पिण मन आण्या नहीं, इण नउ अधिक सनेह ॥१॥
• जिण x जंजाल + प्रादरूं : लावे * सगा $ लगाविसु