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________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि गामागर पुर विचरता, निरमम निरहंकार । नेमि जिणद समोसरया, साधु तराइ परिवार ||१|| साथे गणधर केवलि, चौदह पूर्व धार। चौनाणी तप आगला, लधि तणा भण्डार ॥२॥ छटु छट्ठनइ पारगड, विल उमित आहार । रसना वसि करि जनम लगि, विगइ ताउ परिहार ॥३॥ ऊ च नीच कुल गोचरी, केवल सीतल अन्न । मौन व्रत कारणई पखइ, के प्रतिमा प्रतिपन्न ॥४॥ पहर सात लगि कावसगि, चारित निरतीचार । पहर एक मइ साचवइ, नीमावि श्राहारx ॥५ नव दीक्षित साथइ हुता, कचरण कोमल गात्र । छए अनीक जसा प्रमुख, मुनिवर चारित पात्र ॥६॥ विविध+ अभिग्रहना धरणी, सूवा साधु महत । एक एक हुती अधिक, जे गरुपा गुणवत ॥७॥ सर्व गाथा २६ ढाल २ राग-केदारा गउडी,नमणी खमणी नइ मन गमणी पहनी पहिली पोरसि सूत्र सभारी। बीजी पोरसि अरथ विचारी। जाणी त्रीजी पोरसि लागी। वसि वेदनी क्षधा पिण जागी ॥१॥ सलहीजइ सजम जग सारइ। तेतउ देह तराइ अाधारइ । ते पिण न चलइ विण आहारइ । भाडउ देवउ ते आचारइ ।।२।। इण परि सुध भावन भावी। साधु छए प्रभु पासइ प्रावी । करि आवसही त्रिहु सघाडे । विरहण पहुचइ ते त्रिह पाड़े ॥३॥ * अनइ xना पागम व्यवहार +विविध
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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