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________________ १५४ जिनराज सूरि-कृति कुसमांजलि दोषी देव न देखि सके रे, ए आपण नी जोड़ि ॥१शानां०॥ वीज पडौ जोसी तणी रे, पतड़े उपरी काय । जोडा वेडो करतो पातरयो रे, लोभे चित्त लगाय ||१२||ना०॥ घाट कमाई पापणी रे, अवर न दीजइ दोस । परिण पडतो आलवन ले सहु रे, करै अवर सुरोस ॥१३ना०।। वारणी श्री जिनगजनी रे, वसी जिहा रे चीत । ते तो भोलान्यो भूले नही रे, राखे अविहड़ प्रीति ॥१४॥ना०॥ ॥हा॥ भामण विविध वचन सुरणी, डोल्यो नहीं लगार। कानकाचल डोले नही, जो बाजे पवन हजार ॥१॥ एक मनो सपेखि नै, दीनी अनुमति मात । सदा नीहोरो निवल नो, नै सवला नी लात ॥ जेम जमाली सचर, व्रत लेवानी खत । तिण परि रिद्धि विस्तारि नै, सालिकुमर पिरण जत ॥३॥ सालिभद्र धन भरणी, आपण पं जिनराज । से हथि व्रत देइ कहै, सारो आतम काज ॥४॥ ताम सुभद्रा परिण गहैं, पच महाव्रत भार । धरम करम हिलि मिलि करै, ते विरला ससार ||५|| ढाल-२५ राग सोरठा. हंसली री जाति . कर जोडी प्रागलि रही, लेइ परजन पासै रे। दुख भरि छाती फाटती, भद्रा इण परि भासै रे ॥शाक०॥ मै वछ थापरण नी पर, प्राप्यो छै तुम्ह सारू रे। कोडि जतन करि राखज्यो, मत घालो वीसारूं रे ॥२॥क०।। तू कारो दीघो नथी, सहु को करतो जी जी रे । तिरण कारण जगजीवन, हटक म देज्यो खीजी रे ॥३०॥
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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