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________________ धर्म मर्म परम पुरुष कुण पावत' १०६ फइल रहयउ घट मइ न छुहइ घट, को काहू कउ गुन न गहइ री हु अब भारो हु अब दुबलउ,भ्रम भूलउ सब कोइ कहइ री॥२ ज्ञानी ज्ञान दोइ करि जानइ, क्यू चेतन लक्षन निवहइ री। परम भाव 'जिनराज' पिछानइ, तउ काहू की हाजति न रहइ री ॥३॥ ___ धर्म मर्म परम पुरुष कुण पावत ? राग तोडी. कउण धरम कउ मरम लहइ री। मीन कमठ गगाजल झीलत, खर नितु अग बभूति वहइ री ॥१॥कउ०।। मृग बनवास वसत निसि वासर,भूख तृषा तप सीत सहइ री। मौन लीयइ बग इत उत डोलत, राम नाम मुख कीर कहइ री ॥२॥कउ०।। मुड मुडावत सबही गडरिया,पवन अभ्यासी भुयग रहइ री। 'राजसमुद्र' भणि भाव भगति विगु, परम पुरुष कुण पावत हइ री ।।३।।कउ०॥ काल का हेरा तेरा क्यों कर होगा ? कितने ही आगये? ममता निवारण राग-कनडउ रे मन मूढ म कहि गृह मेरउ । आए किते किते आवइगे, क्यु करि हवइ गउ तेरउ॥रे०॥१ हइ तेरइ पीछइ छाया छल, काल पिशुन कउ हेरउ ।
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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