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________________ १०८ जिनराज भूरि-कृति-कुसुमांजलि जग अथिर 'जिनराज' तामइ, लेहु थिर जस वास ।।क०॥३॥ कोई जामिन नहीं, दस दिन पहिले पोछे राग-गोडी रे जीव काहइ करत गुमान । कुण कण काल कवल से करिहइ,तू मूरिख किसि गान रे०१ इकु पल भर राखण कु विचमइ, होत न कोउ जमान। को दिन दस आगइ कोउ पीछइ.अ त सबइ समसान रे०२।। देखत पलक' नीर नव नेजा, जाइ चढत असमान । श्री 'जिनराज' सखाइ मिलिहा,होत सवइ आसान ॥रे०॥३॥ कामिन गीतम् मदन का तौर राग-धन्यासी अब हइ मदन नृपति कउ जोरो। आपणे आयुध सजि करि रहीयउ, . ___ जणि कोउ करउ नीहोरउ ॥१॥ जाइ मिले सो भी पचतारणे, तउ काहे पग छोरउ। जो पग मडि रहित तिण आगइ,भागउ जाइ भगोरउ ।।२अ० झूठउ साचउ देखि दिवाजउ, भूल रहत मन भोरउ । इण आगइ 'जिनराज' अखडित,राख्यउ अपणउ तोरउ ॥२१० भ्रम-भ्रमण, भ्रम में भूला राग-तोडी अपनउ रूप न आप लहइ री। मोहि मिलिन कलि न सकइ केवल, एक अनेक सभाउ वहइ री ॥१॥ १. खनक
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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