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________________ जिनराजसूरि-कृति-कुसुमांजलि __ भव मइ भमत किते पोउ कोने,सो पीउ जो दुरगति टारइ । 'राज' चतुर वनिता सांइ कउ, ___ नाम अहोनिसि संभारइ ॥|आ०॥ आत्म प्रवोध हिलि मिलि साहिब कउ जस वाचउ । हइ कछु पइ मज हथ इजाजित, जाणि बूझि जिन राचउ ॥हि०॥१॥ देखउ आइ बूढापइ दोनउ, सिरि परि सेत सराचउ । अब इत उत भटकत मन मरकट , बहुत करत हइ काचउ ॥हि०॥२॥ आखरि आइ लगइ गउ इक दिन, जम कउ जोर तमाचउ । उण वरीयां तुम्ह याद करउ के, 'राज' रहत सोउ साचउ ॥हि०॥३॥ झूठी दिलासा वउरे मास वरस हुवउरे, मग जोवत दिन रइणि विहाई । विरहरिण कब लगि धीरज रिहइ, पीउ की खबर न कोइ द्यइ आई ॥शाव०॥ खरची की तउ बात सहल हइ,कागद तभी लिखि कइन पठाई। झूठइ ही मन नइकु दिलासा, कबहू काहू सुन कहाई ॥२व० ठउरि ठरि अइसी ही करिहइ,दिन दस वीस रही उठि जाइ। श्री 'जिनराज' नवल नागर सु, आली मेरउ किछु न वसाइ॥३॥व०॥
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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