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________________ पश्चाताप १०५ या मइ हुकम भयउ साहिब कउ,तउ पलभर रहण न देसी ।२। प्राणनाथ विछुरण की वेदन, निसि दिन कउण सहेसी। श्री 'जिनराज' नवल नवरगी, बहरि न खबरि गहेसी ११३॥ पश्चाताप राग नटनारायण आली प्रीत की पतया हम न वची। कागद पर आखर हइ मसि के, नीर झरत दोउ दृग हमची|आ०१॥१॥ फेरि जबाब न कोऊ लिखाउ, पाछी दे घालउ खरची। ऊपरि अउधि जाण लागे दिन, मग जोवत जोवत विरची आ॥२१॥ होवत प्राण तई निकसन कु, अब लगि क्यु ही क्यु हि वची। 'राज' वदत विरहरिण विरहातुर, प्रीतम मिलिवाकु ललची। आ०॥१॥ सांह नाम संभारो 'भव-भ्रमण' राग-नट आली मत आपउ परवसि पारइ । का कउ प्रिउ अर का की कामिणि, हइ सब स्वारथ कई सारई ॥१॥आ०।। । पीउ पीउ करत कहा पीउ पईयइ, काहइ कधीरज हारइ । टरत न वखत लिखत इक रचक, झुरि झुरि हग जल जण डारइ ।।२आ०॥
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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