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________________ श्री वीर जिन गीतम् सुग रु ना पयकमल मल थापि मुहणत ए। अहवरय हरणि किय कम्म किर दित ए॥ पडिक मण मज्झि विउसग्ग करतउ छतउ । दव्व पूआ तणउ साधु फल वंछतउ ॥८॥ लद्धि विज्जा जुओ साहु नदीसरे। चेइ वदण भणी जाइ जिण मदिरे ।। जाइवा सुर भवण राय असुरा तण। पचमगे सरण किद्ध पडिमा तणउ ॥६॥ जिण वयणि सुरभवण मज्झि जिरणहर अछइ । धूव जिणवर भणी एह अक्खर पछइ । सतर विधि पूज जीवाभिगमाइ कही । वाणमतर विजय किद्ध ते सहही ॥१०॥ सुहम गणहर नमइ वीर सासन धणी। बभ लिवि पंच परमिटि समवडि गिणी।। बंभ लिवि वयण नउ अरथ अक्खर सुण्यउ । नाम समवाय इम अंग चउथइ भण्यउ ॥११॥ दव्व पिण भावनी बुद्धि सुविशेषता । कम्म रय हरण सुसमीर सम देखतां॥ देखि जिण ठवण तिहा भाव आरोवई। भाव जिणवर तणा गुण कहइ दोवई ॥१२॥ चार वर परषदा माहि गोयम दिसइ । आपणई श्री मुखइ वीर जिण उवइसइ ।। धन्न सुरियाभ सुर दव्व पूआ करई।
SR No.010756
Book TitleJinrajsuri Krut Kusumanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1961
Total Pages335
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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