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________________ १६ वीरवारण झनकना है । पंजाबी की “दा" "दी" विभक्तियों का प्रयोग "रा" "0" के स्थान पर कई बार हुआ है । बहादुर ढ़ाढ़ी का शास्त्रीय अध्ययन नहीं ज्ञात होता है और इसलिये भाषा दोष और छन्द दोष भी कई स्थानों पर मिल जाते हैं। __'वीरवाण' में राजस्थानी काव्य के प्रिय अलंकर "वैण सगाई" का सझल प्रयोग भी कई.छन्दों में किया गया है। राजस्थान में ढाढ़ी कवियों ने नीसाणी और दूहा छन्दों को अधिक अपनाया है। इतिवृत्तात्मक वर्णन के लिये निसाणी, चौपाई और दूहा छन्द सर्वथा उपयुक्त रहते हैं । इसलिये 'वीरवाण' में भी नीसाणी और दूहों का प्रयोग किया गया है । कवि के शास्त्रीय अज्ञान अथवा प्रतिलिपि कर्ता के अज्ञान से कई छन्दों में मात्रा दोष भी वर्तमान है । काव्य के अन्त में एक गीत चितहिलोल है और यह काव्य कला का अनुपम उदाहरण है। पद्य के साथ गद्य का प्रयोग कई राजस्थानी ग्रन्थों में मिलता है। राजस्थानी वार्ताओं और ख्यातों में गद्य की प्रधानता होती है तथा पद्य का प्रयोग न्यन होता है। इसी प्रकार कुछ.राजस्थानी काव्यों में कहीं-कहीं गद्य भी मिल जाता है । विषय के स्पष्ट किरण के लिये 'वीरवाण' में कहीं कहीं गद्य की कुछ पंक्तियां मिल जाती हैं । 'वीरवाण' में प्रयुक्त राजस्थानी गद्य पूर्ण परिमार्जित हैं और इसमें पद्य की तरह तुक मिलाने की प्रवत्ति भी दिखाई देती है। 'वीरवाण' का कर्ता स्व. पं. रामकरणजी पासोपा के लेखानुसार रामचन्द्र नहीं ज्ञात होता जैसा कि उन्होंने स्व० सम्पादित राजरूपक भूमिका में प्रकट किया है । 'वीरवाण' का कर्ता बादर अर्थात् बहादुर ढाढ़ी था । ढाढ़ी भी हिन्दु नहीं वरन् मुसलमान ढ़ाढ़ी था जैसा कि हिन्दुओं के लिये किये गये उसके क़ाफिर शब्द-प्रयोग से ज्ञात होता है। कवि के आश्रय दाता भी मुसलमान जोहिये थे और कवि ने अपने आश्रय दाता और इस्लाम धर्म के लिये बहुत ही आदर सूचक प्रयोग स्थान स्थान पर किये हैं। . वास्तव में 'वीरवाण' सम्बन्धित इतिहास के लिये एक आधारग्रन्थ है। 'वीरबांण' काव्य का कर्ता ढाढ़ी बादर सम्बन्धित कई घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी, निष्पक्ष, उदार और काव्य-कला निपुण व्यक्ति ज्ञात होता है । ग्रन्थ की ऐतिहासिक और काव्यात्मक उपयोगिता समझ कर ही हमने अपनी नवीन खोज में प्राप्त तथा सम्बन्धित घटनाओं पर आधारित आढ़ा पाड़खान जी रो रूपक, गोगादेव जी रो, वीरमदेवजी री बात, चूण्डाजी री बात, गोगादेवजीरी वात आदि और महणोत नैणसी का परा वक्तव्य परिशिष्ट में दिये हैं। साथ ही ग्रन्थ के परिशिष्ट में देवगढ़ से प्राप्त 'वीरवाण' की एक अन्य प्रति के पाठान्तर और काव्य-सम्बन्धी कठिन राजस्थानी शब्दों के हिन्दी अर्थ भी दे दिये हैं। वीरबांण की एक प्रति हमें श्री मांगीलाल व्यास, जोधपुर से देखने को मिली किन्तु इसका पाठ नितान्त अशुद्ध होने से हम इसका उपयोग नहीं कर सके। ___अन्त में मैं "राजस्थान अोरिन्टल रिसर्च इन्स्टीट्य ट" के संमान्य संचालक आदरणीय मुनि श्री जिन विजयजी महाराज के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करती हूं जिन्होंने प्रस्तुत उत्कृष्ट काव्य के सम्पादन और प्रकाशन के लिये प्रेरणा दी है । लक्ष्मी निवास काटेज, बनी पार्क, जयपुर लक्ष्मीकुमारी चूण्डावत श्रावणी तीज, सं० २०१४ वि०
SR No.010752
Book TitleVeervaan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRani Lakshmikumari Chundavat
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages205
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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