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________________ वीरवाण जोहियों द्वारा गायें घेर लेने पर वीरमजी ने भी विलंब नहीं किया और वे युद्ध के लिये चलने लगे । मांगलियाणी ने उनको समझाया मैं भाई को समाचार भेजती हूँ वह अवश्य ही प्रातः काल गायें लौटा देगा। वीरमजी ने मांगलियाणी राणी को उत्तर दिया कि लखवेरे की सीमा से जोईये मेरी गायों को लेकर जीवित नहीं जा सकते और यदि मैं तुम्हारे कहने से चुप बैठेगा तो वे समझेंगे कि राठौड़ कायर हैं । ऐसी अवस्था में मेरा आलस्य कर बैठना असंभव है-- फणधर छाडै फणद सुन भार संभावै । अरक पिछम दिस उगवै विधि वेद विलावै ।। विग घटै वींहंगेस को सिव ध्यान भुलावै । गोरख भूले ग्यांन कुजत लिलमण जावै ॥ सत छाडै सीता सती हणमंत घबरावै। धणीयां धाडेता तणीकी परां पावै ॥ हुँ सुक कर वेठु घरे जग उलटो जावै ।। वीरमजी दो हजार सवारों को साथ ले जोइयों पर चढ़ाई करने के लिये तैयार हो गये। इधर जोहीये दस हजार सवारों सहित युद्ध के लिये तैयार हुए । काव्य में युद्ध के प्रारंभिक वातावरण को सफलता पूर्वक अकित किया गया है । भूत, प्रेत जोगिनी, गिद्ध आदि का युद्ध भूमि में आना, वीरो की हुँकार आदि का वर्णन वीर रस के अनुरूप हुआ है। वीरम ने सर्व प्रथम तलवार चलाकर ६५ जोहियों को मार गिराया। फिर वीरम और मदु के बीच भयंकर युद्ध हुया । दोनों घायल हो गये । कवि ने पुनः वीरमजी की वीरता का बखान करते हुए लिखा है-- लोप भवर गिर लंकरो वुण जावै बार। आभ भुजां कुण श्रोढ मैं कुण सायर जारै॥ मिणधर दे मुप अंगुली मिण करण लिवारै।। सिंह पटा झर सांप हो कुंण मैंड पघारै ॥ तेरु कुण सायर तिरै जमकु कुण मारै । वाद करै रिण वीरमो नर कोण वकारै ॥ . मदु तो बिन मारको कुण आसंग धारै। दोनों और के युद्ध का सजीव वर्णन करते हुए कवि ने बताया है कि अन्त में वीर और मदु दोनों ही युद्ध भूमि में मर कर सो गये । कवि कहता है-- अंग वीरमरै ओपीया, घाव एक सो दोय । अंग मदुरै उपरा, गिणती चढै न कोय ।
SR No.010752
Book TitleVeervaan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRani Lakshmikumari Chundavat
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1960
Total Pages205
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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