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________________ योगो मे, सब विद्याप्रो में, सब विद्याधरो मे, सब पर्वतो मे, वनो मे और देवाधिदेव परमात्मा के समस्त नामो मे आकाश की तरह व्याप्त है / अत. यह परम-ब्रह्म है, कला रहित अथवा कला सहित 'अ' जो परमात्मा के नाम के आदि मे है, उस परमात्मा का ध्यान मोक्षार्थी जीव अवश्य करते हैं और करना चाहिये यह मानते हैं / 'र' तत्त्व की विशेषता प्रदीप्त अग्नि के समान समस्त प्राणियो के ब्रह्म रध्र (मस्तक) मे निहित 'र' तत्त्व का विधिपूर्वक ध्यान ध्याता को त्रिवर्ग फल प्रदान कर सकता है, अर्थात् धर्म, अर्थ, काम रूपी त्रिवर्ग की सिद्धि प्रदान करता है / अनन्त-लब्धि-निधान श्री गौतम स्वामी परम तारणहार श्री महावीर . स्वामी परमात्मा के निर्वाण के पश्चात् 'वीर-वीर' कह कर विलाप कर रहे थे। अर्द्ध-रात्री के पश्चात् अग्नि बीज रूपी 'र' अक्षर के प्रभाव से उनके होठ सूखने लगे। कंठ में शोष होने से 'र' अक्षर छूट गया और केवल 'वी' अक्षर का जाप चलता रहा। वे अनन्त बीज-बुद्धि के स्वामी थे, अत उस 'वी' मे से उन्हें वीत-राग, वीत-द्वेष, वीत-भय, वीत-शोक आदि शब्दो का स्फुरण हुआ और उनके मर्म के स्पर्श से प्रात काल होते-होते उन्होने चार घाती कर्मों का क्षय करके केवल-ज्ञान उपाजित किया। कहने का तात्पर्प यह है कि 'र' अग्नि-बीज है / काष्ठ के ढेर को भस्म करने मे अग्नि जो कार्य करती है वही कार्य कर्म रूपी काष्ठ को भस्म करने मे 'र' परमात्मा के नाम के मध्य मे हैं, वह परमात्मा श्री अरिहन्त के नाम का जाप-चिन्तन एव ध्यान भी अचूक प्रकार से करते हैं / अत' उस परमात्मा की पूजा-भक्ति आदि करने मे मानव-भव की सार्थकता है। मिले मन भीतर भगवान 123
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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