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________________ अहं का अद्भुत रहस्य-"त्रिपप्ठिशलाका पुरुप चरित्र" के मगलाचरण मे इस प्रकार बताया गया है ... -"मह" का अद्भुत रहस्य - सकलाऽहत्प्रतिष्ठान-मधिष्ठान शिव श्रियः । भूर्भुवः स्वस्त्रयीशान-मार्हन्त्य प्रणिदध्महे ॥१॥ अर्थ -जो समस्त पूजनीय आत्मानो एव ममस्त अरिहन्तो का भी प्रतिष्ठान है, शिव-लक्ष्मी का अधिष्ठान है और जो मर्त्य, पाताल और स्वर्ग लोक के स्वामी हैं, उन 'पार्हन्त्य' का हम प्रणिधान (ध्यान) करते है। "अहं" मंत्राधिराज है। इसकी अपार महिमा का शास्त्रो मे वर्णन है । गुरु की कृपा से उसका रहस्य जानने से अरिहन्त परमात्मा के प्रति '- तात्त्विक प्रीति एवं भक्ति उत्पन्न होती है। "अहं" का सामान्य अर्थ 'प्रहरहितता' होता है । अतः 'दासोऽह' पद से श्री अरिहन्त की आराधना करने वाला आराधक प्रमश. "सोऽह" और "अह" पद को पार करके 'अहं' पद का पात्र हो सकता है। तात्पर्य यह है कि "अहं" परमेष्ठी वीज है, जिनराज बीज है, सिद्धि वीज है, ज्ञान वीज है, त्रैलोक्य वीज है तथा श्री जिन शासन के सारभूत श्री सिद्धचक्र का भी आदि वीज है । परमेष्ठि-चीज *"सकलार्हत्प्रतिष्ठानम्" परम-पद मे स्थित श्री अरिहन्त परमात्मा का वाचक होने से "अह" परमेष्ठी बीज है। श्री अरिहन्त परमात्मा तत्त्व से पच परमेष्ठि स्वरूप भी है, क्योकि वे तीनो लोको के लिये पूजनीय होने से 'अरिहन्त' कहलाते हैं, उनमे उपचार से द्रव्यसिद्धत्व होने से सिद्ध कहलाते हैं, उपदेशक होने से 'प्राचार्य' कहलाते * अहमिव्यक्षर ब्रह्म वाचक परमेष्ठिन । सिद्धचक्रस्य सद्वीज सर्वत प्राणिदध्महे ॥ १२० मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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