SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनाहत नाद एवं श्री परिहन्त परमात्मा इस प्रकार मन्त्रयोग (जप योग) की साधना नाम परिहन्त की ही आराधना है। उस आराधना मे आगे बढा हुया साधक जब श्री अरिहन्त परमात्मा के स्वरूप में लीन होता है और अन्तरात्मा मे ही परमात्म-स्वरुप के दर्शन करता है तब उसे भाव अरिहन्त के दर्शन होते हैं। __ इस प्रकार नाम अरिहन्त की आराधना के द्वारा भाव प्ररिहन्त के दर्शन होते है। * श्री सिंह तिलक सूरि कृत 'मन्त्रराज रहस्य' मे 'अनाहत' का अर्थ 'अरिहन्त' बतलाया है । उसका रहस्य उपर्युक्त अपेक्षा से विचार करने से समझा जा सकता है। जैसे अहं मन्त्र के जाप में तन्मयता सिद्ध होने से अनक्षर अनाहत नाद उत्पन्न होता है वह भी अरिहन्त-स्वरूप मे तल्लीनता कराने वाला होने से और श्री अरिहन्त परमात्मा के साथ एकता सिद्ध कराने वाला होने से अरिहन्त स्वरूप है। भाष्य, उपाशु और मानस-जाप की कक्षाओ मे उत्तीर्ण होने के पश्चात् इस अनक्षर अनाहत नाद की कक्षा में प्रवेश मिलता है। इस श्लोक का रहस्य यह है कि मुनि जब व्योम स्वरूप निविशेष मनस्काय अवस्था को प्राप्त होता है तब 'अहम्' यही एक नादमय रहता है । गिर पडते पके हुए फलो की तरह अन्य समस्त अवस्था उसके समग्र मन मे से टूट पडती है और वह स्वय के स्वरूप मे, स्वय मे स्थिर होकर समस्त मन्त्रो के बीज-भूत अनाहत नाद को प्राप्त करता है। * नादोऽर्हन व्योम मुनि । ३५१ ॥ ४३६ ।। बिन्दु निमोऽनाहतः सोर्हन ॥ ४४७ ।। मिले मन भीतर भगवान ११९
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy